संविधान की भाषाई अनुसूची का बढ़ता दायरा और सिकुड़ती हिन्दी

इन दिनों शिद्दत से सिर उठाता, हिन्दी परिवार की आंचलिक बोलियों का स्वतंत्र स्थान पाने का मुद्दा (यानी संविधान में प्रदत्त विशेष भाषाई अनुसूची के अन्तर्गत जुड़ने का दुराग्रह) मेरी दृष्टि में एक खतरनाक राष्ट्रघाती कदम है। यह उतना ही खतरनाक है जितना कि देश के भीतर पृथक देश की मांग करते कुछ स्वार्थी तत्व, जो तरह-तरह के आन्दोलन लाद कर सरकार और देश को कमजोर बना रहे हैं। भाषाई मुद्दा सबसे संवेदनशील मुद्दा है। इससे देश की एकता, समरसता, सामाजिकता व अस्मिता की भावनाएँ जुड़ी हुई हैं। भारतेन्दु हरिश्र्चंद्र ने निज भाषा की उन्नति के साथ राष्ट्र की प्रगति को जोड़कर देखा था। अतएव मेरा हिन्दी के समस्त हितैषियों, शुभेच्छुओं एवं हिन्दी की रोटी खाने वाले सभी महानुभावों से अनुरोध है कि वे इस राष्ट्रघाती प्रवृत्ति का विरोध करें ताकि निहित स्वार्थी तत्व अपनी कुत्सित चालें चलने में सफल ना होने पायें। मां भारती के उन समस्त पुत्रों से मेरा भावुक एवं विनम्र अनुरोध है कि वे अष्टम अनुसूची में आंचलिक बोलियों को पृथक भाषा के तौर पर शुमार करने की मांग का पुरजोर विरोध करें।

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