सफल जीवन का मूल-मंत्र

जिस तरह से धान की बालियॉं बड़ी होने के लिये बोने वाले के गुणों की अपेक्षा नहीं करतीं, वैसे ही मनुष्य विकास करने के लिये जीवन के उतार-चढ़ाव की परवाह नहीं करता। वह निरंतर विकास की कामना के साथ प्रयत्नशील और अपनी लक्षित मंजिल की ओर गतिशील रहता है। वह अपने समुज्वल भविष्य हेतु वर्तमान को उन्नत बनाने के प्रयास में दिन-रात परिश्रम करता रहता है। प्रयास के बावजूद कई बार विजय नहीं मिलती। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। उनमें प्रमुख कारण हैं – शौर्य, धैर्य, साहस, सत्व एवं धर्म का अभाव। ये ऐसे कारण हैं, जो समग्र सफलता को संदेह के घेरे में आबद्घ कर देते हैं। अविश्र्वासी एवं संशयशील व्यक्तियों की हरकतों में उनका बचकानापन स्पष्टतया दिखाई देने लगता है। वे छोटे बच्चों की तरह कई बार अकारण ही आवेशाकुल हो जाते हैं। ऐसी मनोवृत्ति वाला व्यक्ति जीवन को सफल एवं सार्थक नहीं कर सकता।

जीवन में भले-बुरे प्रसंग आएँगे। उन्हें रोका नहीं जा सकता। खट्टे-मीठे अनुभव भी होंगे। जीत के क्षण होंगे तो हार भी सुनिश्र्चित है, उनसे बचा नहीं जा सकता। जीवन के अनुकूल-प्रतिकूल हर प्रसंग पर जो लोग संतुलित रहने का अभ्यास कर लेते हैं, वे सफलता का वरण कर सकते हैं। जीवन में हर दिशा में सफल होने का यही मूलमंत्र है। संतुलन ही सफलता का मूल सूत्र है।

संसार में जीने वाला प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन-रथ को विश्र्वास, आपसी तालमेल एवं संतुलन के आधार पर ही सुख से आगे बढ़ा सकता है। मनुष्य जीवन बना ही है हार कर जीतने के लिये या जीत कर हारने के लिये। जीवन उन्हीं का सार्थक होता है, जो हार के बावजूद दुगने उत्साह से उठ खड़े होते हैं और नये जोश से हार को जीत में बदलने के लिए प्रयास करते हैं। इसके लिये जरूरी है- पारस्परिक व्यवहार में मिल-जुलकर रहने एवं एक-दूसरे के विचारों, आदर्शों और इच्छाओं को महत्व देने की। क्योंकि प्रायः सभी लोग अपनी मान्यताओं और अवधारणाओं को सही ठहराते हैं। ऐसी स्थिति में यह सोच रखना व्यर्थ-सा लगता है कि अन्य सभी लोग मेरी ही इच्छा के अनुरूप चलें। इस तथ्य को समझ कर मनुष्य को किसी भी व्यक्ति से उतनी ही आशा रखनी चाहिए, जितना सहयोग वह दूसरों का खुद कर सके। जितना हम दूसरों से भलाई की अपेक्षा रखते हैं, दूसरे भी हमसे भलाई की अपेक्षा रखते हैं।

प्रत्येक व्यक्ति अपने ढांचे में ढला होता है। आधुनिक जीवन की स्थितियों का गंभीरता से आकलन करने पर यह महसूस होता है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना विचार और व्यवहार होता है और वह उससे बाहर नहीं निकल पाता। दूसरे की इच्छा क्या है? दूसरे का दृष्टिकोण क्या है? दूसरे की सोच क्या है? शायद इस पर विचार करने का अवकाश भी नहीं है। तब हम किस मुंह से कहें कि सब सुखी हों। वर्तमान युग में हमने जितना पाया है, उससे अधिक खोया है। इसका कारण है, मनुष्य की संकीर्ण और स्वार्थी सोच। एक-दूसरे के साथ मिलजुलकर रहना तभी संभव हो सकता है, जब व्यक्ति अपनी तरह दूसरों के मनोभाव को समझे और उसे उचित महत्व दे। तभी सामंजस्य की स्थिति का निर्माण हो सकता है और एक-दूसरे के प्रति सम्मान एवं सौहार्दपूर्ण वातावरण को तैयार किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में ही स्वस्थ समाज का निर्माण संभव है।

सारे संसार में जितने संत-मनीषी एवं महापुरुष हुए हैं, उन्होंने “पर’ को महत्व दिया है न कि “स्व’ को। महानता सदैव दूसरों के लिए सुख के प्रयासों से ही उद्घाटित होती है। जिस व्यक्ति की सोच अपनेपन में ही सिमटी हुई हो एवं दूसरों को सहन करने या सुनने की बिल्कुल भी स्थिति न हो, वहॉं जीवन भारभूत-सा बन जाता है। संवेदनहीनता ही वह कारण है, जिसमें एक का रुदन दूसरे का मनोरंजन करता है, एक का हास्य दूसरे को रुलाता है। सहिष्णुता के अभाव में हर छोटी-मोटी बात पर बिखराव एवं विवाद की स्थितियां बन जाती हैं, बात चाहे देश की हो या समाज की, बात चाहे परिवार की हो या संगठनों की- संवेदनहीनता एवं असहिष्णुता व्यक्ति को अपने सुख-आनंद से तो वंचित करती ही है, स्वस्थ एवं सौहार्दपूर्ण समाज के निर्माण में भी सबसे बड़ी बाधा बन जाती है। ऐसे व्यक्ति परिवार से तो उखड़ ही जाते हैं और समाज भी ऐसे व्यक्ति को अपेक्षित महत्व नहीं देता। दबाव और बलपूर्वक किसी को अपने विचारों से सहमत नहीं किया जा सकता। मनुष्य-मनुष्य के बीच सहकार का रिश्ता सदियों से अविच्छिन्न रूप से चला आ रहा है। पारस्परिक विचार-विनिमय से ही प्रत्येक समस्या का समाधान खोजकर स्वस्थ और रचनात्मक स्थितियों तक पहुँचा जा सकता है। ऐसे ही वातावरण में सब सुखी हों, सब निरोगी हों, सब उन्नति करें- यह पुरातन युग का घोष चरितार्थ होता हुआ दिख सकता है।

संसार का ाम इसी आधार पर चल रहा है। मित्रों, परिजनों, परिचितों एवं संबंधियों से भी आपसी मेल-जोल के आधार पर ही निकटता बढ़ाई जा सकती है। प्रयास करने पर भी जो काम नहीं हो पाया, उससे खिन्न या निराश होने की अपेक्षा बेहतर यही है कि अपने संतुलन को बनाये रखें, जिससे आपसी संबंधों में दुराव न आ पाए। यह संभव ही नहीं है कि सबकी विचारधारा एक जैसी हो। प्रकृति के प्रांगण में कदम-कदम पर विभिन्नता को देखा जा सकता है। फल, फूल, पौधे सब एक जैसे कहां हैं? किंतु प्रकृति के अन्तर्जगत में एकलयता है, एकात्मकता है, भिन्नता में भी सहकार की एकरूपता है, वह सबको समान रूप से पोषित कर रही है।

बुराइयां उसी समाज में होती हैं, जो “परस्पर देवोभव’ के सिद्घान्त में विश्र्वास नहीं रखता है, उस सिद्घान्त को नहीं मानता। जहां एक-दूसरे के लिए मनुष्य के मन में सद्भावना होगी, प्रेम होगा, वहीं मानवीय मूल्य पैदा होंगे। जहां घृणा होगी, दुर्भावना होगी, वहां मानव का मानव के प्रति प्रेम का संबंध कदापि नहीं हो सकता।

वर्तमान युग में स्वार्थ इतना प्रबल हो गया है कि “परस्पर देवोभव’ की बात स्वप्न जैसी लगती है। एक समय था, जबकि व्यष्टि का हित समष्टि के हित में माना जाता था, अर्थात् ऐसा काम करने से व्यक्ति विरत रहता था, जो दूसरे का अहित करता हो। आज इसका उल्टा हो गया है। हमारा मतलब सधना चाहिए, भले ही उससे दूसरे का कितना ही अहित क्यों न हो जाये। वह अवस्था आज स्वप्नवत हो गई है, जब जीवन-मूल्यों की प्रधानता थी, जिसमें भ्रातृ-भाव था और जिसमें एक-दूसरे के लिए त्याग और बलिदान की भावना थी। हमें उसी व्यवस्था को लाने का प्रयत्न करना चाहिए।

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