सबूत

उसे मेरे आने की सूचना पहले ही मिल चुकी थी। मैंने आते ही नंदू को फोन कर दिया था। नंदू के भाई ने बताया कि नरैण का को टेंटवाले के वहॉं से बर्तन ले जाने हैं। वह बर्तनों को गिनकर पैक कर आया था। उसने बताया कि नंदू ने मुझसे जल्दी आने के लिए कहा है। वह मुझसे “बाइक’ पर बैठने की जिद करने लगा। जब मुझे पता चला कि नरैण का को भी नंदू के वहॉं ही जाना है तो मैंने उनके साथ ही साथ पैदल चलने का निर्णय लिया। तभी नंदू का फोन आ गया। मैंने उसे अपने निर्णय से अवगत करा दिया। नंदू का भाई फोन पर हमारी बातें सुनकर मुस्कुरा रहा था। वह भी हमारे और नरैण का के संबंधों से परिचित था। मैंने अपना बैग उसे दे दिया। वह बाइक से चला गया। मैं और नरैण का टेंटवाले के वहॉं चल दिये।

नरैण का ने बर्तनों का पैक अपने कंधे पर रखा और चल पड़े। मैं भी उनके साथ हो लिया। नरैण का अभी शांत थे, मैंने ही उन्हें छेड़ने का निर्णय लिया… “”नरैण का बरात में तो चलोगे?” “”हॉंऽऽ हॉं ब्रदर जरूर-जरूर चलेंगे, लेकिन कल तो…।” वह कुछ सोचने लगे, फिर उनका चेहरा तमतमा उठा…. “”अरे! मर जाएगा साले शराब पीकर… मूत क्यों नहीं पीता…. मारूँऽ मारूँऽऽऽ… चल छोड़ देता हूँ….।”

“”नरैण का लो सिगरेट पियो” मैंने सिगरेट देते हुए कहा। “”अरे, इसी सिगरेट को पीकर तो सिकंदर ने दुनिया जीती थी। लाओ, मैं भी इसी को पीकर हरिया का बाजा बजाऊँगा। साले अपने बाप को घर से निकालता है। कर दूसरा बाप पैदा। कर लेऽऽ कुत्ते मेरा अग्निबाण आ रहा है। बच सकता है तो बच, अब माफ नहीं करूँगा। तेरा अंत मेरा बम करेगा… लेऽऽ…।” उन्होंने ढेर सारा धुआँ मुँह से उगल दिया। यदि उनकी बातों को पागलपन का प्रलाप समझ लिया जाए, तो उनकी बातों के निहितार्थ समझ में नहीं आ सकते और यदि उनकी बातों पर थोड़ा-सा भी ध्यान दिया जाए तो कई परतें खुलने लगेंगी। ऊपर की बातों में नरैण का हरिया की घटिया करतूतों पर ाोधित हो रहे थे। मॉं की मौत के बाद उसने अपने बूढ़े बाप को इतना सताया कि बूढ़े ने नदी में कूदकर जान दे दी। तब मैं भी इसी शहर में था। यद्यपि उनकी पागलपन भरी बातें अर्थहीन ही हुआ करती थीं, फिर भी मैं उनके अर्थ अपने ढंग से निकाल लेता था।

नरैण का की बातों में उलझकर सफर का पता ही नहीं चला। अब हम गॉंव के एकदम करीब थे। पास ही मैदान में बच्चे खेल रहे थे। मुझे सिगरेट की तलब लग रही थी। मैं आराम से बैठकर सिगरेट पीना चाहता था। मैंने नरैण का से कहा, “”चलो सुस्ता लें।” नरैण का ने बर्तनों का पैक कंधे से उतार दिया और पेड़ की छाया में बैठ गये। दोनों बैठकर सिगरेट फूँकने लगे। तभी नंदू का फोन आ गया। मैं उससे बातें करने लगा। बातें खत्म करके मैंने फोन जेब में डाला ही था कि नरैण का ने अपना फोन निकाल लिया। मेरा मुँह आश्र्चर्य से खुला का खुला रह गया। पर थोड़ी ही देर में फोन की असलियत समझ गया। वह मात्र खिलौना था, पता नहीं कहॉं से उन्हें मिल गया। पहली नजर में वह मुझे असली लगा था। नरैण का ने अपनी जेब से शिवजी का कैलेंडर निकाला। कैलेंडर के नीचे “सागर शू स्टोर’ लिखा था तथा दुकान के फोन नंबर लिखे थे। नरैण का कैलेंडर में लिखे नंबरों को डायल करने लगे।

“”हैलो…हॉंऽऽऽ… मैं नरैण सिंग… प्रणाम…. बार-बार प्रणाम… हॉंऽऽ…. वो थानेदार का क्या हुआ?…. क्या कहा? कुछ नहीं हुआ…. तो कब तक करोगे?

अरे! तब तक तो वह कई लोगों के हाथ-पैर तोड़ देगा… मैं सही कह रहा हूँ। चोरी करने वाले कोई और थे पकड़ लिया बेचारे मोतिया को… बहुत मारा… वह ऐसा ही करता है…. यह घोर अनर्थ है… घोर, करे कोई भरे मोतिया…. इतनी भांग मत पिया करो…. प्रभु…. क्या कहा? चलो ठीक है… हॉंऽऽ हॉंऽऽऽ।

हो गया इलाज मनीऑर्डर खा गया। भगाओ उस साले को भी। हॉंऽऽ हॉंऽऽ ठीक हैऽऽ…. अब रात में कटवाता है पेड़… डॉक्टर… उस पर तो वा का प्रहार करो…. धरमसिंग की सही टांग काट दी गधे ने.. प्रभु जरा जल्दी किया करो, खाली टॉंग कुत्ते ने। उसका…. खा लेता तो अच्छा होता खींऽऽ…. खींऽऽ। काला मुँह करके घुमाया था…. फिर डाल दिया नरक में… ठीक है बता दूँगा…. अच्छा प्रणाम प्रभु प्रणाम।” नरैण का ने बड़ी नजाकत से फोन जेब में रखा। “”ये भोले बाबा तो देर कर देते हैं। कह रहे थे…. काल भैरव छुट्टी पर गया है। अरे! वह करता है फटाफट…. दूध का दूध और पानी का पानी।” नरैण का ने जोर का जयकारा लगाया… “”जय काल भैरव।” “”एक सिगरेट पिलाओ…” उन्होंने मेरी तरफ हाथ बढ़ा दिया। वह पता नहीं क्या सोचने लगे, सिगरेट का गहरा कश लेकर उन्होंने फिर से फोन निकाल लिया, फोन को हाथ में लेकर वह जोर-जोर से हॅंसने लगे, फिर हॅंसते-हॅंसते उन्होंने फोन को जेब में रख लिया।

मैं नरैण का और शिवजी के बीच हुए संवाद का अर्थ खोजने लगा। जरूर ये बातें नरैण का ने लोगों से सुनी होंगी। वह शिवजी से न्याय की आशा कर रहे थे। मैं जानता था कि शिवजी नरैण का की कोई सहायता नहीं कर पाएँगे। मैं यह भी जानता था कि यह पागलपन है, फिर भी मैंै इस वार्ता के गूढ़ निहितार्थ खोजने लगा। आखिर नरैण का को संसार से क्या लेना है? वह क्यों संसार की अराजकता से खिन्न है? मैं अपने ढंग से उत्तरों की खोज करने लगा। नरैण का को अभी तो कई फोन करने पड़ेंगे। हो सकता है पूरी उम्र ही यह काम चलता रहे। मेरे सामने टी.वी., रेडियो और अखबार की खबरें घूमने लगीं। डॉक्टर ने मरीज की किडनी निकाल कर बेच दी। अस्पताल की दवाइयॉं दुकान पर…. जिंदा लोग अपने जिंदा होने का सबूत देने कोर्ट गये। थानेदार ने किया बलात्कार….. चोर रिहा, ईमानदार गिरफ्तार। मुझे लगा कि नरैण का ही नहीं, मुझे भी खिन्न होना चाहिए। मुझे भी अपनी खिन्नता का प्रदर्शन करना चाहिए। यदि नरैण का जैसे पागल को लगता है कि बहुत कुछ गलत हो रहा है तो मेरे जैसा व्यक्ति इस गलत को हजम कैसे कर पा रहा है। ऐसे लगा जैसे नरैण का ने मुझे अपना दायित्व बोध करा दिया। उन्होंने मुझे अहसास करा दिया कि मात्र चलना-फिरना, खाना-पीना, हॅंसना-बोलना ही जीवित होने की निशानी नहीं है। जीवित होने के लिए कुछ पुख्ता सबूत मेरे पास है?

“”चलो…” नरैण का ने उठते हुए कहा। मैं अब कुछ निर्णय ले चुका था। मैंने नरैण का की आँखों में आँखें डालकर कहा, “”चलो नरैण का चलो, अब तो मैं भी तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ।” मुझे लगा कि मेरी चेतना नये क्षितिज तलाश रही है। अब मैं अपने जिंदा होने का पुख्ता सबूत दे सकता था। (समाप्त)

– नवल किशोर भट्ट

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