समर्पण

मेरे घर में सारी बात सुनकर मेरी श्रीमती का मूड भी बिगड़ गया। सारी उम्र यह फांस उसके गले में अटकी रही। इसके चलते श्रीमती और हमारे बच्चों ने कभी गॉंव का रुख नहीं किया। हॉं, लोकलाज के डर से और अम्मां व रिश्ते-नाते निबाहने की गर्ज से मुझे ही साल में गॉंव का एकाध चक्कर लगाना पड़ता। भाई-बहनें भी पूरी-सूरी थीं। वे मेरे यहॉं कहॉं आ पाते थे? गॉंव मेरे लिए एक स्वप्नलोक बनता जा रहा था। मेरे और गॉंव के रिश्तेदारों के सरोकार बदलते जा रहे थे। हर बार मैं समझता था कि गॉंव का मेरा यह अंतिम फेरा ही होगा। अम्मां के मरने की खबर कभी भी आ सकती थी। शहरी जीवन का आदी हो गया था मैं। वहॉं एक आसानी यह थी कि रिश्तों का कोई दबाव नहीं था। सब मस्त थे। एक-दूसरे के व्यक्तिगत जीवन में दखल नहीं देते थे। उन्हें इन बातों के लिए फुर्सत ही कहॉं मिलती थी।

गॉंव में पांच-सात दिन रहने पर मेरे दिमाग में खुजली होने लगती थी। जिससे भी बात करो, वह कटाक्ष में बात करता। कभी मजाक में तो कभी गुस्से और कभी उलाहने में। कमला ताई कहती, “”रे निर्मोही, कभी अपनी बहनों के घर भी जाया कर। अपने भाई को देखने का चाव उन्हें भी होता होगा।” चम्पा बुआ कहती, “”अपनी मां को भी साथ ले जा। कुबड़ी हो गई है, तेरा घरबार देख आएगी।” पार्वती चाची कहती, “”रेे धर्मदेव, मेरा भाई पूरा हुआ था उधर, मुंबई में, तू जाकर एक बार अफसोस ही कर आता उन्हें।” हर तरफ से मुझ पर वैचारिक हमले होते रहते। ये दिन उफ-उफ करते बीतते। और अम्मा, वह भी वैसी ही बातें करतीं। कहतीं, “”बहू को देखे पंद्रह बरस हो गये। उसका कोई फर्ज नहीं कि आकर सास की खैर-खबर ले। मेरा सुख-दुःख करे। मेरा भाई मरा, भाभी चली गई। गॉंव में ताया-नानकू पूरा हो गया, उसे आना नहीं चाहिए था? तेरे बच्चों की तो मैं शक्लें ही भूल गई। तेरी बहनों पर मनोहर इतना खर्च करता है, उनके बच्चों को शगुन आदि देता है, क्या तुम्हारा कोई फर्ज नहीं बनता कि रिश्तेदारियां निभाओ। कल तूने इस घर में से हिस्सा लेना है। मनोहर की बहू यही ताने मारती रही है मुझे कि छोटी बहू ने तो कभी तेरी सुध नहीं ली, फिर भी तू दिन-रात देव के गुणगान करती रहती है।”

अब अम्मा नहीं रहीं तो ये बातें करने वाला भी कोई नहीं रहा। अब हर तरफ जिद और रीस ही चल रही है कि तू जैसा करेगा वैसा ही तेरे साथ करेंगे। अम्मा थीं तो सारा कुनबा अच्छी तरह आपस में जुड़ा हुआ था। कहीं कुछ कमीपेशी या ऊँच-नीच हो जाती तो अम्मां सब कुछ अपने ऊपर ले लेतीं, बेचैन हो उठतीं, इधर-उधर सलाह करतीं, चर्चा करतीं और जब तक सब कुछ सामान्य नहीं हो जाता, तब तक चैन से कहॉं बैठती थीं वह। हर बार मेरे गॉंव आगमन पर खिल उठती थीं अम्मां। कहतीं, “”कुनबे की इस माला में बस हर जगह तेरी ही कमी खलती है। जो पास होता है, उसका इतना चाव नहीं होता। तू छोटा है न, बहुत याद आता है। कई बार तेरी शक्ल भूल जाती हूँ। एक साल का वक्त कम नहीं होता रुलाने के लिए! मनोहर तो वट वृक्ष सरीखा अपनी गृहस्थी में खप गया है। वह कुनबे में सबसे बड़ा है, मुझे हमेशा से ही पक्का प्रौढ़ दिखता रहा है। और तेरे पिता के मरने के बाद तो उसकी कद-काठी, नयन-नक्श, चेहरा-मोहरा सब उन जैसा ही लगता है।” मेरी मां कहा करती थीं कि “”जो जितना दूर हो, वह उतना ही दिल के करीब लगता है। उसकी ये पहेलियां तब मेरी समझ में नहीं आ पाती थीं। अस्सी साल की होकर अब मुझे पता चला है कि बच्चों का मोह क्या होता है? मां का मन बच्चों से कभी नहीं भरता, वे चाहे कितनी आसानी से उसे भूल जाएं। मेरे कान तेरी आहट सुनने को तरसते रहते हैं। रेे बड़भागिया। छोड़कर आ जा वह नकली जीवन। यहॉं की आबोहवा देख। स्वर्ग समान है यह धरती। हर तरफ अपने लोग, एक-दूसरे की मदद करने के लिए हमेशा तैयार। वहॉं पराए और पत्थर दिल लोगों के बीच सारी उम्र काट कर तू भी निर्मोही और छोटे दिल का बन गया है। सारा खून पानी हो गया है तेरा। अपने संबंधियों को देखकर एक बार भी तेरा खून ठाठे नहीं मारता। यहीं बस जा, हम भी देखें तेरी टौर, तेरा बाग-परिवार।”

अम्मा बहुत दूर चली जातीं। कल्पना के बड़े-बड़े सब्जबाग देखने लगतीं। उसे क्या पता कि अब मेरी वापसी संभव नहीं रही। अब तो मैं बरगद सरीखा वहीं शहर में ही फैंल गया हूँ, जिसे किसी भी तरीके से यहॉं रोप पाना मुमकिन नहीं। फिर मेरा परिवार किसी और ढंग से बड़ा हुआ है। गॉंव के तो नाम से ही बिदकते हैं वे। अम्मां नहीं जानतीं कि गॉंव में एक भी बेल ऐसी नहीं, जो मुझ जैसे शहरी परिंदे के पॉंव बांध सके। शहर की बेरहम हवा आदमी को ग्रामीण रिश्तों के प्रति बेगाना बना देती है। शहर में भावनाओं से गुजर-बसर नहीं होता। हर चीज मोल के भाव बिकती है वहॉं। लोग तो बात करने तक की फीस ले लेते हैं वहॉं।

इधर, अम्मा जब से आँखों से बिल्कुल अंधी हो गयीं तब से बहुत ही भावुक हो उठी थीं। बात-बात पर आँखें छलछला आतीं उनकी। मनोहर की चिंता करतीं। कहतीं, “”तेरी अच्छी पक्की नौकरी है। बच्चे भी ऊँचे ओहदों पर हैं। मनोहर के बच्चों के पास ढंग की रोटी-बोटी का जुगाड़ नहीं। मिट्टी के साथ मिट्टी होकर घर की जरूरत के लिए अन्न उगाते हैं। बारिश अच्छी हो जाये तो बल्ले-बल्ले, नहीं तो बाप-बेटे आसमान की तरफ पानी के लिए ताकते रहते हैं। बहुत कठिन जीवन है उनका बेटा। तेरे पास लाखों रुपये हैं, तू यहॉं की तीन-चार एकड़ जमीन लेकर क्या करेगा। मनोहर के नाम कर दे। मनोहर कह रहा था कि पैसों का जुगाड़ करके वह तुझे जरूर भेजेगा। मेरे जीते जी वह सब निपट जाये तो अच्छा है, बाद में तुम भाइयों में थाना-कचहरी हो तो मेरी आत्मा को दुःख पहुँचेगा। देखता नहीं, जरा-जरा जमीन के लिए गॉंव में भाइयों के बीच तलवारें तन जाती हैं। मनोहर ने सारी उम्र मुझे संभाला है तू तो परदेसी है, मेहमान की तरह आता है।”

अम्मा के जीते-जी मैं कुछ भी फैसला नहीं कर पाया कि जमीन मनोहर के नाम कर दूँ। अब अम्मा के गुजर जाने के बाद रो-धोकर, सारे िाया-कर्म करके सुबह मनोहर के साथ उसके स्कूटर पर पास के कस्बे से मुंबई के लिए टेन लेने पहुँचा हूँ। मनोहर हम भाई-बहनों में सबसे बड़ा है, धीर-गंभीर स्वभाव है उसका। उससे कभी सीधी आँख मिलाकर बात नहीं की मैंने। मुझसे गले मिलाकर उसका गला भर आया। बोला, “”अम्मा के कारण तू हर साल आता था, अब पता नहीं आएगा भी या नहीं। बहुत सख्त दिल है तेरा। सब रिश्तों से मुक्त है तू। मेरा हाल-चाल फोन पर पूछते रहना। शादी-गमी में आते रहना, मुख न मोड़ना। अम्मा ने मरते समय मुझसे कहा था कि धर्मदेव का हक मत मारना। सो तब से ही लोन आदि लेकर तेरे लिए पैसों का इंतजाम किया है मैंने। ये ले, दस लाख का चेक है। अपनी पत्नी से चोरी से दे रहा हूँ। तू भी घर पर मत बताना। ये तेरे और मेरे बीच का हिसाब-किताब रहा। जमीन चाहे मेरे नाम लिख या न लिख, मेरे बच्चे उस पर काश्त कर रहे हैं, सो तेरा हक तुझे दे रहा हूँ ताकि हम दोनों के दिलों में हमेशा प्यार बना रहे।”

मनोहर ने जबरन वह चेक मेरी कमीज के ऊपरी जेब में ठूंस दिया और मेरे सिर पर हाथ फिराकर आशीर्वाद दिया। टेन धीरे-धीरे सरक रही थी। दूर होता जा रहा मनोहर, ऐसा लग रहा था मानो बचपन के मेरे पिता हों, जो मुझे शहर के कॉलेज के लिए छोड़ने साइकिल पर आया करते थे। सारी यादें ताजा हो उठीं। मनोहर ने कर्ज लेकर मुझे अपनी हैसियत से बढ़कर रुपये दिये हैं। पता नहीं कब तक वह इस पैसे की किश्तें चुकाता रहेगा, असल की भी और सूद की भी। मैं इन रुपयों का क्या करूँगा? बैंक में रखकर ब्याज खाऊँगा, शेयर खरीदूंगा, बीवी के लिए हीरे खरीदूंगा, क्लब में ऐश करूंगा। अम्मा ने असल में ऐसा तो नहीं चाहा था। मनोहर ने अंत तक उसे संभाला। मेरे हिस्से की देखभाल भी उसी ने की। मनोहर न होता तो अम्मा रुल जातीं, वक्त से पहले ही खत्म हो जातीं। मैंने जेब से वह चेक निकाला और उसकी चिंदी-चिंदी करके बाहर उड़ा कर ऊपर आसमान की तरफ देखा। सोचने लगा कि यह देखकर अम्मा की आत्मा को कितनी शांति मिली होगी।

– जसविंदर शर्मा

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