समर्पण

samarpanअम्मा से वह मेरी अंतिम मुलाकात थी। उसे अंतिम मुलाकात कहना सही नहीं होगा, क्योंकि मेरे गॉंव पहुँचने से पहले ही अम्मा जा चुकी थी। मृत्युलोक से दूर, हर दुःख-तकलीफ से परे। पिछली बार जब मैं उससे मिलने आया था तो वह बोली थी, “”बेटे, बहुत हो चुकी उम्र। पोते-पड़पोते देख लिये, अब ईश्र्वर का बुलावा आ जाये तो अच्छा है। मैं बिस्तर पर न गिरूँ। मोह-ममता नहीं छूटती बस। तुझमें ध्यान रहता है। तेरा बड़ा भाई मनोहर यहीं गॉंव में ही रहता है। उसके बच्चे ब्याह गये। तेरे अभी कुँवारे हैं। उनका घर बस जाता तो सुख का सांस लेकर मरती मैं।”

मैं उसे समझाता, “”अम्मा, हमारी चिन्ता मत किया कर। हम लोग मजे में हैं। बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवा दी है। सब मजे कर रहे हैं। खाते-कमाते हैं। उनके संस्कार कुछ और ही हैं अम्मा। मनोहर के बच्चों जैसे नहीं कि जो बापू ने बोल दिया, वह पत्थर की लकीर। नयी सदी के इस मोड़ पर मुझे भी यह बात सालती है, मगर क्या करूं? समय के साथ छलना पड़ता है। मैं अपने बच्चों का भाग्य-विधाता तो हूँ नहीं कि जबरन उन्हें शादी के मंडप में बिठा दूँ। अम्मा जब उनका ब्याह होगा तो उनके साथ रहना और कठिन हो जाएगा। एक कोठी में दो परिवार। पहले उनके लिए कोई फ्लैट का बंदोबस्त हो जाये तो शादी के लिए कह सकता हूँ।” हैरानी के मारे अम्मा की आँखें खुली रह गईं। बोली, “”कितना निर्मोही है तू! शादी करते ही बच्चों को अलग कर देगा?” मैं बोला, “”वहॉं हर आदमी आजादी चाहता है। मेरी बेटी दिव्या तो अमेरिका जाने का जुगाड़ बना रही है। वहीं घर भी बसा लेगी। कंप्यूटर इंजीनियर है। अम्मा आज के बच्चे अपने मन के हैं। उनके रास्ते में हम लोग रुकावट नहीं डाल सकते।”

मैं दो अलग-अलग संस्कृतियों के बीच झूलता हूँ। मैं गॉंव में प्रवेश करता हूँ, जिस परिवेश में मैं पैदा हुआ, बड़ा हुआ, अब वही तुच्छ, सुविधाविहीन और पिछड़ा हुआ लगता है। यहॉं रुक कर अब ऐसा लगता है कि कुछ दिन और रह लिया तो दुनिया से बहुत पीछे रह जाऊँगा। कुछ देर के लिए गॉंव आकर्षित करता है, लगता है, इस जगह सब समान हैं। बुल्लेशाह की कविता की तरह जो हम बचपन में गुनगुनाते थे, “”चल बुल्लियॉं, चल ओथे चलिए, जित्थे रहदें अन्ने, न कोई साड़ी जात पछाने, न कोई सानूं मन्ने।” यानी वहॉं चलकर रहें, जहॉं सब अंधे बसते हों, जो हमारी जाति न पहचान सकें। कितनी समता और बरकत है, यहॉं की आबोहवा में। किसी में कोई महत्वाकांक्षा नहीं। कोई होड़ नहीं। ज्यादा से ज्यादा कमाने की लालसा नहीं। बस जो हो जाए, वही काफी है। अपनी नियति के सामने सिर झुकाकर जीने की कला है इन लोगों में। जहॉं मैं रहता हूँ, वहॉं किस्मत, भगवान, रिश्ता, भरोसा, कुनबा जैसी संकल्पनाएँ नहीं हैं। वहॉं चूहा-दौड़, एम्बीशन, जुगाड़, पर्सनेलिटी ज्यादा महत्व रखते हैं।

अम्मा से साल में एक बार मिलने के लिए आता हूँ। भाई कब के रिटायर हो चुके हैं। गली की तरफ तीन दुकानें निकाली हैं उन्होंने। मेरे हिस्से के प्लॉट पर भी मकान बन चुका है। एक हिस्से में उनका बड़ा बेटा सपरिवार रहता है और एक में डोर-डंगरों के लिए खपरैल है।

कई बार अम्मा कहती, “”देव, तू पढ़-लिखकर शहर में इतनी तरक्की कर गया, कोठी बना ली। तेरे बड़े भाई मनोहर का इतना बड़ा टब्बर। उसके किसी बेटे की ढंग की नौकरी नहीं, दो लड़कों को तो खेती का ही आसरा है। गॉंव की जायदाद में जो भी तेरा हिस्सा है, मनोहर के नाम कर जा। दुआएं देगा वह। उसने हमेशा मेरा ख्याल रखा है। उसकी बहू सुधा से मेरी सारी उम्र नहीं बनी। आज भी मैं अपने हिस्से के मकान में बैठी अपने हाथों से बनी रोटी खाती हूँ, मगर मनोहर हर वक्त मेरा ख्याल रखता है। कभी कुबोल नहीं बोला उसने। कभी-कभी जरूर तेरे बारे में कसैली बातें करता है कि देव ने कभी चार पैसे भेजे हैं तुझे या उसके परिवार का भी फर्ज बनता है कि तेरी देखभाल करे। अब मैं कुबड़ी हो गई हूँ। घर का राशन वही लाकर देता है। हर महीने पॉंच सौ रुपये अपनी पेंशन में से देता है। पत्नी मना नहीं करती उसे। अब जैसा भी है, मेरे चुग्गे का इंतजाम करता है वह। तुझसे खर्च के लिए क्या कहूं? तू हमेशा तंग ही रहा। कभी मकान की किस्तें तो कभी बच्चों की पढ़ाई का खर्च। अब कुछ अरसे से तू रुपये दे जाता है, उसे ही मैं अपनी िाया-कर्म के लिए जमा करती जा रही हूं ताकि खर्च को लेकर तुम दोनों भाइयों में दरार न पड़े। तू तो बहुत दूर रहता है। मैं मर गयी तो सारा बोझ मनोहर पर ही पड़ेगा। बेटे मनोहर के बारे में कुछ सोचना। मेरे जीते-जी पुश्तैनी जायदाद का निपटारा हो जाता तो…।” अम्मा के बार-बार कहने के बावजूद भी पता नहीं क्यों, मेरे खून ने कभी जोर नहीं मारा कि मैं अपने हिस्से की जमीन व मकान मनोहर के नाम कर दूँ। सुना है कि आजकल तो गॉंवों में भी जमीन लाखों के भाव बिकती है। मैं यहॉं जोश में आकर कुर्बानी दे जाऊँगा तो मेरी श्रीमती मुझे सारी उम्र कोसती रहेगी।

मनोहर और मेरे बीच लेन-देन की बात बीस साल पहले उठी थी। यहॉं शहर में किसी तरह मैंने तीन सौ गज का प्लॉट खरीद लिया था और उसके ऊपर मकान खड़ा करने का कोई जुगाड़ नहीं था मेरे पास। जो लोन मिल रहा था वह काफी नहीं था, क्योंकि मेरी श्रीमती आलीशान घर बनाना चाहती थी। उधर, बच्चों की पढ़ाई का खर्च। मैं बड़े चाव से गॉंव आया था कि भाई से पैसे लेकर मकान बनाऊँगा। अम्मा ने सुना तो वह बहुत खुश हुई कि चलो छोटे बेटे का शहर में ठिकाना बना। मगर भाई व भाभी को अच्छा नहीं लगा। कहने लगे, “”यहॉं से हजारों कोस दूर ठिकाना बनाने का क्या फायदा? यहॉं तुम्हारे रिश्तेदार हैं, कुनबा है, टब्बर है। यहॉं जड़ें हैं तुम्हारी। अनजान बिरादरी में कल बच्चों की शादी-ब्याह…।”

अगले दिन पता चला कि उनके बिसूरने का कारण कुछ और ही था। वे मेरे हिस्से की दबाई जायदाद से हाथ धोना नहीं चाहते थे। मैंने अम्मा से बात चलाई कि मेरे हिस्से का जो भी बनता है, चाहे थोड़ा कम ही सही, मुझे दिलवाया जाये ताकि मैं भी अपने मकान को बनवाना शुरू कर सकूं। अम्मा चाहकर भी कुछ फैसला न करवा पाई। मनोहर तो बिफर गया, बोला, “”तुझे पता नहीं कितना झंझट है इन जमीनों में? कागजों में हमारी तीनों बहनों और काकू चाचा का नाम भी है। काकू चाचा कुंवारा ही मरा, मगर उसकी रखैल के घर पैदा हुआ लड़का भी बराबर का हिस्सेदार है। तू शहर में रहता है सारे कानून जानता होगा। यहॉं कुछ दिन रुककर पटवारी व तहसीलदार से मिलकर कोशिश कर, शायद जमीन हम दोनों भाइयों और अम्मा के नाम हो जाए। फिर तीन हिस्से करके तेरा हिस्सा बेच देंगे। मैं तो एक लड़की की शादी कर चुका। रिटायरमेंट के आधे पैसे वहॉं लग गये। एक लड़की अभी भी दीवार की तरह सिर पर खड़ी है। बच्चे भी नौकरी नहीं करते कि उनसे पैसे पकड़ कर तुझे दे दूँ। तू तो अफसर आदमी है। सौ जगह रसूख है तेरे। कहीं से कर्ज लेकर मकान बना ही लेगा..।” मुझे इतना मुश्किल रास्ता बताया गया, जितना उस राजकुमार को कहा गया था कि कई मुसीबतें झेलकर राक्षस को मारकर मणि लाएगा तब राजकुमारी उससे शादी करेगी। दो सप्ताह मैं वहॉं टिका रहा। टेनिस की गेंद की तरह इधर से उधर टप्पे खाता रहा। अम्मा तो अशक्त हो चुकी थी और भाई के घर की कमान सुधा भाभी के हाथ में थी। उनकी मजबूरियॉं भी साफ नजर आ रही थीं मुझे। उनके पास पांच-सात लाख का कोई जुगाड़ नहीं था कि वे मेरा हिस्सा खरीद लेते। भाई के बैंक में पैसा था, मगर सुधा भाभी ने साफ मना कर दिया। मुझे साफ तौर पर बता दिया गया कि घर तो पुश्तैनी है जिसके एक हिस्से में अम्मा का डेरा था, जहॉं मेरी बहनें व साझे रिश्तेदार आकर टिकते थे। उनके जीते-जी वह हिस्सा तो बेचा नहीं जा सकता था। दूसरे बड़े हिस्से में भाई का टब्बर था।

जमीन बेचकर अपना तीसरा हिस्सा ले जाने के लिए मुझे कहा गया, मगर जमीन के कागज ठीक करवाने में बहुत सिरदर्दी हुई। पिता जी ने मरने से पहले यह सब ठीक करवाने की जरूरत नहीं समझी थी। उन्हें क्या पता था कि लाखों का भाव होते ही जमीन पर सबकी निगाहें टिक जाएँगी। मास्टर थे वह। एक दिन दिल का दौरा पड़ा। मनोहर भाई ने बीएड किया ही था। पिता जी का स्कूल प्राइवेट था, सो अम्मा को कोई पेंशन नहीं मिली। बाद में भाई की नौकरी सरकारी स्कूल में लग गयी थी। पंद्रह-बीस दिन तहसील के चक्कर काटने के बाद मुझे पता चला कि जमीन को फौरन बेचने का काम इतनी आसानी से होने वाला नहीं है। पहले तो मैं तीनों बहनों को एक जगह इकट्ठा करूं, वे भी मुझ से खासी नाराज थीं। हमारे अविवाहित चाचा का नाम भी दावेदारों में था। उनकी एक रखैल और उससे हुए बच्चों का भी पता चला यानी पांच-सात लाख का अपना हिस्सा लेने के लिए अच्छी-खासी दौड़-धूप करनी पड़ती। उधर, ऑफिस से पत्र आ गया था कि जल्दी पहुँचो। अपना माथा पीटकर थक-हार कर मैं खाली हाथ वापस लौट आया। अम्मा खुद मनोहर के आसरे थी, मेरी कोई मदद क्या करती या मेरे लिए क्या जोर लगाती? वह तो शुरू से ही कहती रही है कि मैं अपना हिस्सा मनोहर को दे दूँ तो कुनबे में मेरी अच्छी इज्जत बनी रह सकती है। फिर भी आते समय अम्मा ने आश्र्वासन दिया था कि वह मनोहर को मनाएगी कि दोनों भाई जायदाद का बंटवारा कर लें, जमीन मनोहर रख ले और देव को उसके हिस्से के रुपये दे दे।

– जसविंदर शर्मा

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