सिद्घ-साधकों के लिए अनुबंध-कुछ शर्तें

“प्राणविद्युत’ साधक का परिचय है। साधना अवधि में यह अपनी चरम-सीमा में होती है। इसकी मात्रा के अनुरूप साधक का प्रभाव परिलक्षित होता है। इसकी सुवास से वातावरण महक उठता है, सौंदर्य मंडित होता है। यही कारण है कि संत, सिद्घ, साधक के सान्निध्य-संसर्ग को जीवन की सबसे बड़ी घटना के रूप में देखा जाता है, क्योंकि इनके प्रभाव-क्षेत्र से संपर्क होते ही मन पुलकित हो उठता है। भावनाओं में दिव्यता का संचरण होने लगता है, परंतु प्राणविद्युत की अपरिष्कृत एवं अपरिमार्जित स्थिति उतनी ही कष्टकारक प्रतीत होती है। ऐसे व्यक्ति से संपर्क होते ही मन उचटने लगता है और असहज हो जाता है।

प्राणविद्युत जीवन को अभिव्यक्त करती है। इसके बिना शरीर शव के समान होता है। यह जिसमें जितनी परिष्कृत मात्रा में होती है, वह उतना ही सौंदर्य की आभा से आलोकित होता है। पुष्पों में यह सुंदरता एवं सुगंध देती है। विभिन्न जीवों में यह भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाई देती है। यह जड़ में उतर कर चैतन्य बन जाती है। नदी, नाला, झरना, समुद्र, सरोवर का तट आदि प्राकृतिक वातावरण की सरसता और दिव्यता के पीछे प्राणविद्युत का अविच्छिन्न प्रवाह है। सामान्य व्यक्ति को भी यह आकर्षित और प्रभावोत्पादक बना देती है। प्राणविद्युत ही मानव जीवन का सार है। साधना के माध्यम से इसे ही परिष्कृत किया जाता है और संरक्षित कर विकसित किया जाता है।

साधना के गर्भ में साधक की प्राणविद्युत परिष्कृत और पवित्र होती है। यह अत्यंत विशिष्ट काल होता है, जिसमें साधक के लिए अनेक सावधानियों और शर्तों की कड़ी पाबंदियां होती हैं। इस दौरान साधक बड़ी सतर्कता और सुरक्षा के घेरे में होता है। यह अवधि साधक के जीवन और मरण के समान होती है। थोड़ी-सी चूक और लापरवाही भयंकर क्षति पहुँचा सकती है। साधना के मर्मज्ञ गुरु साधकों के लिए कुछ नियमों और शर्तों का विधान बताते हैं। इसमें से सर्वप्रथम साधक को किसी अन्य व्यक्ति के स्पर्श से बचना है। साधक के लिए किसी भी प्रकार का स्पर्श वर्जित माना जाता है। किन्हीं विशिष्ट संतों-महात्माओं के अलावा चरण-स्पर्श करना भी निषेध होता है और किसी से चरण-स्पर्श कराना तो उसे अपने पथ से विचलित कर देने के समान होता है। यहॉं तक कि किसी व्यक्ति को छूना भी मना होता है।

चरण-स्पर्श की यह बात बड़ी अटपटी और अप्रासंगिक लग सकती है, क्योंकि अपनी संस्कृति में चरण-स्पर्श से श्रद्घा और भावना की अभिव्यक्ति मानी जाती है। फिर यहां इस पर भी प्रतिबंध और पाबंदी क्यों? वस्तुतः चरण-स्पर्श के पीछे जो तथ्य काम करता है, वह है- प्राणविद्युत। साधक की प्राणविद्युत एक नयी आकृति और प्रकृति धारण करने वाली होती है, अभी पूर्णरूपेण पगी-पकी नहीं होती है। ऐसे में किसी सामान्य व्यक्ति से जिसकी प्राणविद्युत अभी उतनी संस्कारित नहीं है, चरण-स्पर्श कराना अत्यंत घातक हो सकता है, क्योंकि हाथ और पैरों की उंगुलियों से प्राणविद्युत का निर्झरण बड़ी तीव्रता से होता रहता है। स्पर्श के माध्यम से इसका स्थानांतरण होता है। किसी भी प्रकार के स्पर्श से साधक के अंदर की प्राणचेतना धूमिल होती है, जो साधक के आत्मिक विकास के लिए बाधक हो सकती है। यही कारण है कि साधक को इस कड़े नियम से गुजरना पड़ता है।

सिद्घ-संतों के लिए यह नियम लागू नहीं होता है, क्योंकि उनकी आंतरिक चेतना उस स्तर तक पहुँची हुई होती है, जहॉं से वे सतत ब्राह्मीचेतना द्वारा दिव्य स्पर्श एवं आदान-प्रदान का अनुभव करते हैं, परंतु साधक की चेतना की स्थिति उस स्तर की नहीं होती है। सिद्घि से पहले हर साधक को इन अनुबंधों का पालन करना पड़ता है।

रामकृष्ण परमहंस का साधनाकाल भी कुछ ऐसा ही था। विशिष्ट साधना प्रयोगों के दौरान वे सदा अपने शरीर को कंबल से ढके रहते थे। यहॉं तक कि वे अपने आसपास के व्यक्तियों की परछाइयों और उनके स्पर्श से आती हवा से भी बचते थे, ताकि उनके अंदर की प्राणचेतना के प्रयोग में कोई बाधा-व्यतिाम न आ सके। इस दौरान प्राणविद्युत तीव्रगति से रूपांतरण की प्रिाया में होती है। अतः इसे इसी रूप में बनाये रखने के लिए स्पर्श निषेध माना जाता है।

हर साधक, सिद्घ और अवतारी महापुरुष अपने साधनाकाल में जन-संकुलता से दूर जनशून्य में तपस्या और साधना के द्वारा अपनी आंतरिक चेतना का विकास करता है। संत एकनाथ ने भी अपने गुरु जनार्दन स्वामी के आदेश से मार्कंडेय ऋषि की तपस्थली सुलभा पर्वत पर इसी प्रकार की एकांत साधना में लंबा समय गुजारा था। उस दौरान वे न किसी से बात करते थे और न ही किसी की कोई बात सुनते थे। काले कंबल में लिपटे हुए वर्षों तक वे अपनी साधना में निमग्न थे। इस कठिन प्रिाया को पूर्ण करने के पश्र्चात् ही उन्होंने गुरु के आदेश पर भगवान दत्तात्रेय के धर्म का प्रचार किया।

चरण-स्पर्श से प्राणविद्युत का प्रवाह होता है। संतों-तपस्वियों के चरण-स्पर्श से सामान्य जन लाभान्वित अवश्य होते हैं, परंतु उसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ती है। माता शारदामणि शाम को गंगाजल से अपने पैर धोती थीं, क्योंकि अनेक प्रकार के लोगों के चरण छूने से उनके पैर में जलन होती थी। हर व्यक्ति का अपना संस्कार होता है और वह अपने अनुरूप अच्छा-बुरा होता है। चरण छूने पर इस संस्कार का स्थानांतरण होता है, जो हर साधक के आत्मिक विकास के लिए प्रतिकूल होता है। अतः विशेष अनुष्ठान, पुरश्र्चरण एवं अन्य किसी साधनाकाल में साधक को इस दिशा में सदैव सचेष्ट, सतर्क और जागरूक होना चाहिए। ऐसी अवस्था में श्रद्घापूर्वक हाथ जोड़कर काम चलाना चाहिए।

साधक को स्पर्श के अलावा भी अनेक चीजों से बचना चाहिए। ये हैं, वाणी का प्रयोग, किसी की आँखों में आँख गड़ाकर देखना, दूसरों के साथ भोजन करना, दूसरों के परिधानों आदि का प्रयोग। ये कुछ से विधान हैं, जिनके पीछे विशिष्ट वैज्ञानिक कारण हैं। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि इन चीजों के साथ व्यक्ति के बायोइलेक्टिसिटी से जुड़े और बायोमैग्नेटिक तत्त्व लिपटे और घुले हुए होते हैं। अतः इनके प्रभाव से बचने के लिए ही ऐसे अटपटे अनुबंधों का उल्लेख मिलता है। साधक को अपनी साधना को सही मुकाम तक पहुँचाने के लिए उपर्युक्त शर्तों का अवश्य पालन करना चाहिए।

साधक की सर्वोपरि समस्या है, प्राणविद्युत का क्षरण। ऊर्जा का संरक्षण-संवर्द्घन करते हुए इसका समुचित सदुपयोग करना ही साधक का सबसे बड़ा लक्ष्य है। अपने लक्ष्य की प्राप्ति से पूर्व साधक को अपनी समस्त बाधाओं-कठिनाइयों पर सुनियोजित ढंग से विजय पानी होगी, तभी वह सिद्घ-साधक बन सकता है। अतः साधना करने वाले सभी साधकों से ऐसे अनुबंधों-शर्तों के अनुपालन की अपेक्षा की जाती है।

You must be logged in to post a comment Login