सुख-संगिनी

वह इतना हंसमुख था कि उसका नाम ही मनमोहना पड़ गया। परिवहन विभाग में क्लर्क की नौकरी उसे रास आ गई थी, सारा विभाग किसके दम पर चलता है, किसी से छिपा नहीं है। यहां छोटे से छोटा काम भी बिना पैसे के नहीं सरकता। यदि सुविधा-शुल्क नहीं तो समयानुसार कार्य भी नहीं। इतने चक्कर कटाएं जाएंगे कि ईमानदार आदमी अपना समय व श्रम तो बर्बाद करेगा ही, उससे अधिक धन भी व्यय कर देगा, जितना उससे सुविधा-शुल्क मांगा गया होगा। ऐसा नहीं है कि जानबूझकर व्यक्ति को परेशान किया जाता हो, नियम एवं कानून की बात करने वालों को ऐसे ही सबक सिखाया जाता है, यही परिवहन विभाग की विशेषता है, किन्तु प्रतीक घालमेल वाला कर्मचारी था। उसकी नजर व्यक्ति का भेद जानने में समर्थ थी। वह जैसा सामने वाले को समझता, वैसा ही व्यवहार करता। उसकी व्यावहारिकता के सभी कायल थे। प्रतीक की व्यावहारिकता का ही कमाल था कि अनेक अवसरों पर विभाग फ़जीहत से बच गया था, अन्यथा कुछ कर्मचारियों ने तो बैठे-बिठाए अपनी जान मुसीबत में डाल दी थी। नौकरी दांव पर लगी, सो अलग।

मेरी मुलाकात प्रतीक से उस समय हुई, जब उसने कृष्णा पार्क कॉलोनी में फ्लैट खरीदा। मेरा भी फ्लैट उसके बगल में था। मैंने समझा कि अवश्य ही परिवहन विभाग में बड़ा अधिकारी होगा, क्योंकि जो फ्लैट उसने खरीदा था वह उच्च आय वर्ग की श्रेणी का था। फ्लैट भी उसने अपनी पत्नी के नाम से ाय किया था, निःसन्देह अधिकृत सूत्रों से उसकी आय इतनी नहीं थी कि वह फ्लैट खरीद सकता, फिर भी उससे मिल कर लगा कि वह सहयोगी प्रकृति का है।

इसका उदाहरण भी मुझे मिल गया, मुझे अपना डाइविंग लायसेंस रिन्यू कराना था। मैंने घर पर ही उससे बात की। मात्र अनिवार्य शुल्क उसने मुझसे लिया तथा एक दिन में ही नवीनीकृत लायसेंस मेरी सुपुर्दगी में दे दिया। जबकि एक एजेन्ट ने मुझसे इसी कार्य की दस गुना फीस मांगी थी, सुविधा-शुल्क और अपना मेहनताना जोड़कर।

बहरहाल मेरा मकसद यहां यह बताना है कि विभाग चाहे कैसा भी हो, हर व्यक्ति एक-सा नहीं होता। सुविधा-शुल्क के नाम पर गतिशील विभागों में भी प्रत्येक प्रकृति के कर्मचारी कार्य करते हैं। ऐसा ही कर्मचारी था प्रतीक, जिसकी बुराई किसी से नहीं सुनी। विभागीय साथी भी उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते थे। कहते थे, साथी हो तो प्रतीक जैसा, मिल-बांटकर खाता है, बंटवारे में भी कोई बेईमानी नहीं करता है।

सरकारी कर्मचारी की अपनी सीमाएं होती हैं। प्रत्यक्ष सम्पत्ति पर जांच दलों की कड़ी नजर रहती ही है। सरकारी कर्मचारी अपने नाम सम्पत्ति रखने से परहेज ही करते हैं। सम्पत्ति पत्नी के नाम कराकर यह प्रचारित करते हैं कि अमुक सम्पत्ति उसकी पत्नी को अपने मायके से प्राप्त हुई है। भले ही पत्नी के मायके वाले आर्थिक दृष्टि से विपन्न हों। ऐसा ही प्रतीक के साथ भी था, दिन-रात मेहनत की, दिन में कार्यालय में खटता रहा, रात्रि में जांच दल के साथ सड़कों पर वाहनों के कागजात की चैकिंग की, तब जाकर कुछ पैसा इकट्ठा हुआ। जिसका अधिकांश भाग उसने फ्लैट खरीदने में लगा दिया। रही-सही धनराशि फ्लैट में भौतिक साधन जुटाने में व्यय कर दी। कुछ नकदी थी, उसे पत्नी के नाम से बैंक-खाते में जमा करा दिया।

पत्नी सुरेखा, बेटा रजत, बेटी स्नेहा भरा-पूरा स्नेहिल परिवार था, प्रतीक का। कभी-कभी उसकी मां और बाबूजी भी आते थे, किन्तु उनका रहना-सहना अपने पैतृक-निवास में ही था, जो पुराने शहर की तंग गलियों में था। नई कॉलोनी मां-बाबूजी को आत्मीय नहीं लगती थी। एक दिन मैंने बाबू जी से पूछ ही लिया, “”बाबू जी, प्रतीक के अलावा आपका है ही कौन? बेटे-बहू के पास आकर रहिए, पोते- पोतियों से खेलिए। नाहक ही पुराने शहर में रह रहे हैं।”

बाबूजी ने मेरी ओर अर्थपूर्ण नजरों से देख कहने लगे थे, “”सौरभ बाबू, वह मकान साधारण मकान नहीं है। उस मकान में मेरा बचपन बसता है, मेरे बेटे प्रतीक का बचपन बसता है, मेरे पूर्वजों की स्मृतियां हैं, प्रतीक की किलकारियां हैं, उसे छोड़ने का स्वप्न देखना भी गुनाह है। यही नहीं, मेरे इष्ट मित्रों का संग उन्ही छोटी संकरी गलियों में आज भी रमता है। हमारा उन गलियों में धमा-चौकड़ी मचाना, छुआछाई, ऊंच-नीच खेलना आज भी आंखों में चमक भर देता है। गली का वातावरण आज भी आत्मीयता से भरा है। जरा-सी परेशानी होने पर पड़ोसी भी परेशान हो जाते हैं। कोई भी काम हो, सब हाथों-हाथ उठा लेते हैं। भला ऐसे मुहल्ले से मुंह कैसे मोड़ा जा सकता है?”

बाबूजी के चिन्तन का नजरिया मुझे बहुत अच्छा लगा। मैं समझ गया कि रिश्तों को बनाने में माहिर लोग कभी धन-वैभव को सम्मान नहीं देते। भौतिक सुख-सुविधाएं आत्मीय सम्बन्धों के सम्मुख नितांत बौनी हैं। उनके इसी गुण का अंश प्रतीक के व्यवहार में भी समाहित है। उसकी कार्यशैली भी धन को इतना महत्व नहीं देती, जितना व्यक्तिगत सम्बन्धों को महत्व देती है। तभी तो प्रतीक अधिकांश परिचितों का आत्मीय है। प्रतीक के बारे में कुछ पूछते ही बस यही उत्तर मिलता है- “”अरे… वह मनमोहना!”

प्रतीक अपनी गृहस्थी में रमा था। हंसता- खेलता परिवार। प्रतीक का खिलंदड़ी व्यवहार बच्चों को खूब सुहाता। सुरेखा टिप्पणी करती- “”कभी तो चैन से बैठ जाया करो।” प्रतीक न मानता, हर बार यही कहता, “”जीवन के हर पल को मैं खूब जी भरकर जीना चाहता हूं।” सुरेखा मुस्कुरा कर रह जाती और कहती, “”शैतान कहीं के! बचपन कब का पीछे छूट गया, पर बचपना नहीं गया।” प्रतीक सुरेखा को गोद में उठाता, पूरे फ्लैट में घुमा देता, रजत और स्नेहा ताली पीटते।

समय अपनी गति से सरक रहा था। समय की गति में परिवर्तन न था, परिवर्तन था तो प्रतीक की जीवनशैली के ाम में। प्रतीक की सुखी गृहस्थी को न जाने किसकी नजर लग गई। सुरेखा ने अपने लिए स्वर्ण आभूषण बनवाए, जमापूंजी का एक बड़ा भाग स्वर्णकार की भेंट चढ़ गया, प्रतीक ने उसे समझाया, “”सुरेखा तन का सौंदर्य आभूषण नहीं उत्कृष्ट आचरण है। मधुर वाणी से लोगों का हृदय जीत लो, भले ही पुरस्कार मिले न मिले, बदले में अपेक्षित स्नेह और सम्मान न मिले, पर आत्मसंतुष्टि अवश्य मिलती है।” सुरेखा पर इसकी बात का कोई असर नहीं पड़ा। स्वर्ण और हीराजड़ित आभूषणों के प्रति उसका आकर्षण जो ठहरा। तिस पर मुहल्ले-पड़ोस में अपना वैभव प्रदर्शित करने की चाह। इस बात के चलते प्रतीक और सुरेखा में कुछ मनमुटाव भी हुआ, किन्तु इतना भी नहीं कि दाम्पत्य जीवन की डगर पर साथ न चल सकें।

पहले परिवार में जिस प्रकार खुशियों की बरसात होती थी, वर्षा की फुहारों-सा स्नेह रिमझिम-रिमझिम बरसता था, वह कम हो गया। उसका स्थान कटुतापूर्ण तानाकशी ने ले लिया, कई बार सुरेखा कह देती, “”मैंने तुम्हारे भीतर न जाने क्या देखा, जो तुम पर फिदा हो गई। तुम तो एक मामूली क्लर्क ठहरे, मेरे पीछे रईसजादों की कतार थी। बस, एक बार पलट कर देखने की देर थी कि वे मेरे सम्मुख पलक पांवड़े बिछा देते। सुनो, उनमें से एक तो वही था मशहूर सेठ शीतल प्रसाद का लड़का। उसके पैर में जरा-सी खराबी थी तो क्या? वहां जाकर राज करती थी।”

ऐसे में तमतमा जाता प्रतीक। होंठों पर कृत्रिम मुस्कान बिखेर कर कहता, “”अपने मन की अब कर लो… तुम्हें रोका किसने है?”

सुरेखा पैर पटकती हुई कहती, “”बिंध गया, सो मोती, रह गया सो पत्थर’ अब इस पत्थर के सामने गुहार लगाने से क्या लाभ? यह सुधरने वाला जीव नहीं है, न जाने किस मिट्टी का बना है।”

समय कुछ और रेंगा। प्रतीक के चेहरे पर अक्सर थकान पसरने लगी। खाया-पीया हजम नहीं हो रहा था। आंतों में ऐंठन, पेट में कब्ज और न जाने क्या-क्या, जैसे किसी ने कलेजे पर पत्थर रखकर उसे दबाने का जतन किया हो। दम हलक में आने को तैयार, सीने में घुटन।

पत्नी सुरेखा से कहा, “”सुनो, जी मिचला रहा है। पेट में ऐंठन है, थोड़ा खाने का सोडा पानी में मिला कर देना।”

एक बारगी सुरेखा को मजाक सूझा, “”क्या कहते हो जी? जी मिचला रहा है? कहीं पैर भारी तो नहीं हो गये!”

होंठों से दबी मुस्कुराहट निकली, तथापि प्रतीक चिल्लाया, “”मैं मरा जा रहा हूं और तुम्हें मजाक सूझ रहा है।”

स्थिति गम्भीर थी। सुरेखा ने दौड़ कर प्रतीक का कहा पूरा किया। कुछ देर पास बैठकर सान्त्वना दी, “”आराम करो, सब ठीक हो जाएगा। यदि अधिक परेशानी है तो किसी अच्छे डॉक्टर से चैकअप करा लो।”

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