स्वयं से जुड़ने की कोशिश करो

ये विडंबना ही तो है कि व्यक्ति समाज से जुड़ता है, संसार से जुड़ता है। संबंधों के नित- नये आयाम रच लेता है, लेकिन अपने आप से दूर हो जाता है। अपने से टूट कर संसार से जुड़ने में भला कोई समझदारी है? सारा जीवन मरते रहे बाहरी दुनिया की चकाचौंध से भ्रमित हुए, उसके पीछे भागते रहे, लेकिन अपने भीतर उतर कर नहीं देखा। अपने अन्तर्मन में नहीं झांका। सारी ऊर्जा बाहर झोंक दी, लेकिन अपने लिए कुछ बचा कर नहीं रखा।

एक संत किसी नगर में गये। उनका काफी सत्कार हुआ। वे स्वयं तो त्यागी पुरुष थे, लेकिन भक्तों की इच्छा कई बार रखनी पड़ती है। वे सन्त एक दिन प्रवचन कर रहे थे, तभी वहां का राजा उस स्थान से गुजरा। जन-समूह को देखकर उसने पूछा, “”सब लोग क्यों इकट्ठा हैं? कोई विशेष कारण है या कोई उत्सव है?”

तब उसे पता चला कि सन्त वहां प्रवचन कर रहे हैं। उत्सुकतावश वह भी अपने रथ से उतर पड़ा। सन्त उस समय तत्त्व-दर्शन की बात कर रहे थे। राजा के मन पर उनकी बातों का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। अगले ही दिन उसने उन संत को अपने महल में आमंत्रित किया। यद्यपि उन महापुरुष की इच्छा नहीं थी, फिर भी इसे परमात्मा की इच्छा समझ कर वह राजा के महल में गये।

उनके स्वागत-सत्कार में राजा ने कोई कमी नहीं रखी थी। सब कुछ वहां अद्वितीय था, अद्भुत था। सन्त ने सब कुछ देखा, लेकिन कोई प्रतििाया व्यक्त नहीं की। उन पर मानों इस राग-रंग का कोई असर ही नहीं था। राजा को यह देखकर बड़ा आश्र्चर्य हुआ। वैभव की सारी सामग्री जुटा दी गई, लेकिन सन्त तो बिल्कुल निर्विकार थे।

राजा का अहंकार टूट गया। यद्यपि उसने पहले उन्हें मात्र एक साधारण सन्त-महात्मा समझ कर उनकी आवभगत की थी और उसके पीछे भी उसकी अहम् भावना प्रमुख थी। लेकिन सन्त के उच्च विचारों के आगे उसकी कुत्सित भावना नहीं ठहर सकी। जब सन्त वहां से चलने लगे, तो राजा ने उनके चरणों पर अपना सिर रख दिया। बड़े ही आदर युक्त वचनों से उन महात्मा से उनकी निर्विकारता के विषय में पूछा।

सन्त मुस्कुरा कर बोले, “”राजन, संसार के सुखों की कहीं कोई नित्यता नहीं होती। सुख और दुःख तो मन के भावों में समाहित हैं और ये मन नित नये-नये खेल रच लेता है। जब सुख आता है तो आनन्द मिलता है, उत्सव मनाते हो, खुश होते हो, लेकिन कहीं न कहीं ये डर भी लगता है कि कहीं मेरा ये सुख समाप्त न हो जाये? कहीं विषाद जीवन में न उतर आये। बस यही द्वन्द्व शुरू हो जाता है और व्यक्ति में आसक्ति बढ़ने लगती है।”

राजा के सामने जीवन-दर्शन के नये अध्याय खुलते जा रहे थे। राजा ने पूछा, “”तो फिर सच्चा सुख कैसे मिलता है और उसे कहां खोजना चाहिए?”

सन्त ने गम्भीर स्वर में कहा, “”देखो राजन! संसार में जितना रमना चाहते हो, रमो। जितनी आसक्ति रखना चाहते हो, रखो। तुमने अपना सारा वैभव, सारी विलासिता, सारा राग-रंग प्रदर्शित कर लिया है, क्योंकि तुम्हारे लिये संसार की इन वस्तुओं में ही खुशी छिपी हुई है। लेकिन तुम्हारे राजमहल में अगर कहीं कोई भगवान का मंदिर होता तो तुम सुख को बाहर नहीं ढूंढते। वह तो परमात्मा की कृपा बन कर तुम्हारे भीतर ही उतर जाता। तुम जब कभी उसके भजन में लीन होते, कथा सुनते, भक्ति करते तो वह स्वयं ही तुम्हारे भीतर से प्रस्फुटित हो जाता। लेकिन मुझे तो कहीं भी परमात्मा का स्थान नहीं मिला, फिर सुख तुम्हारे भीतर कहां होगा? तुम तो संसार से ही जुड़े रहे। अपने से कब जुड़ोगे?”

राजा नतमस्तक हो उठा और बोला, “”महाराज अब मुझे स्वयं से जुड़ने का मार्ग भी दिखला जाइये।”

सन्त बोले, “”स्वयं से जुड़ना है तो पहले अपने भीतर की उलझनों से मुक्त हो जाओ। हर्ष-विषाद के द्वन्द्व को भूल जाओ। अपने झूठे आनन्द का त्याग करना सीखो। इस क्षणभंगुर जीवन को भगवान का आशीर्वाद समझ कर, अपने अन्तर्मन की आवाज सुनकर विवेकपूर्ण निर्णय लो। जो अपने आत्मतत्त्व से जुड़ना सीख जाता है, वही संसार को जीत सकता है। वही विजय प्राप्त कर सकता है।”

राजा ने उसी क्षण महात्मा को दण्डवत् प्रणाम किया और उनका शिष्यत्व ग्रहण कर आत्मचिंतन में लीन हो गया।

ये कथा किसी एक राजा की नहीं है, अपितु प्राणीमात्र की है, जीव मात्र की है। प्रत्येक मनुष्य इसी प्रकार स्वयं से टूट कर संसार से जोड़ लेता है और फिर उसी दुनियावी दर्पण में खुद को देखना शुरू कर देता है। वहॉं सत्य तो कहीं नहीं दिखाई देता अपितु विषयों का मकड़जाल इतना उलझा देता है, भौतिकता इतनी बुरी तरह खींच लेती है कि व्यक्ति कब स्वयं से दूर हो गया, इसका उसे खुद भी पता नहीं चलता।

संसार के विषयी दुःख उसे पीड़ा पहुंचाते हैं, लेकिन फिर भी वह उनका दामन नहीं छोड़ता। कभी न कभी तो सुख मिलेगा, कभी न कभी तो खुशी मिलेगी, कभी न कभी…। और वह कभी नहीं आता। हाथ लगती है सिर्फ हताशा, सिर्फ निराशा।

ध्यान रखना जो अपने भीतर से, अपने आत्म-तत्त्व से, अपने हृदय-तत्त्व से जुड़ते हैं, वही परमात्मा को पा लेने में सक्षम होते हैं, परमात्मा को पाने के अधिकारी होते हैं। इसी का नाम योग है। तुम एक चेतना हो, एक सर्वांग चेतना। एक दिव्य आत्म-तत्त्व तुम में सदैव रमण करता है। लेकिन तुम उस दिव्य तत्त्व को विस्मृत कर बाहरी आवरण, दिखावे और आचरण को अपना सत्य समझ बैठते हो। बस यहीं से टूटन आरंभ होती है।

जो एक अपने आप से टूट गया, वह द्वन्द्व से फिर कभी मुक्त नहीं हो पाता है और जो स्वयं से जुड़ गया, वह परम भक्ति और परम ज्ञान को पा लेता है। वह सुखों के पीछे भागता नहीं है। वह विषयों में अनुरक्त नहीं होता है। उसका व्यक्तित्व परिपक्व होता जाता है। जीवन में सौंदर्य की नवीन अनुभूतियां उतरने लगती हैं। फिर दर्द नहीं, पीड़ा नहीं, चुभन नहीं, अशांति नहीं, उत्तेजना नहीं, विकृति नहीं, सब कुछ स्थिर हो जाता है और भीतर-बाहर परमात्मा की दिव्यात्मा से झिलमिला उठता है।

– गौरव कृष्ण गोस्वामी

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