हमारी गन्दगी हमीं पर बरस रही है

बरसात के मौसम में चारों तरफ बरसात की ही चर्चा है, जहॉं बरसात हो रही है वहॉं बरसात होने की और जहॉं पर नहीं हो रही, वहॉं बरसात के न होने की। इस बरसात के संबंध में मुझे एक बुजर्ग ने एक कहानी सुनायी। एक गांव के किनारे एक पवित्र सरोवर था, उसके किनारे एक मन्दिर था जहॉं एक पुजारी रहता था। वह नित्य प्रातःकाल सरोवर में स्नान करता, फिर पूजा-अर्चना करता।

बरसात हुई तो पुजारी ने देखा कि पूरे गांव का गन्दा पानी नालियों में बहता हुआ तालाब में गिर रहा है। पुजारी का मन यह देख कर वितृष्णा से भर गया क्योंकि उसकी नजर में तो तालाब की पवित्रता सर्वोपरि थी। उसने तालाब को झिड़कते हुये कहा, “छिः छिः मैं तो तुम्हें पवित्र समझकर डुबकी लगाता रहा लेकिन तुम कितने गन्दे हो। सारे गांव की गन्दगी तो तुममें समा रही है।’ इस पर तालाब ने कहा, “तुम नादान हो, सारे गांव की गंदगी जो मुझमें समा रही है, इसे मैं पास के नाले में उंड़ेल देता हूँ। हमेशा के लिये अपने पास थोड़े ही रखता हूँ।’

अब पुजारी नाले के पास पहुँचा और उससे भी यही कहा तो नाला बोला “भाई, तुम्हें गलतफहमी हुई है। जो गन्दगी तालाब मेरे पास भेजता है, मैं उसे छोटी नदी में धकेल देता हूँ।’ अब वह नदी के पास गया तो छोटी नदी बोली, “मैं तो सारी गन्दगी गंगा में डाल देती हूँ।’ जब उसने गंगा से कहा कि “लोग तो तुम्हारी पवित्रता की दुहाई देते हैं, कसमें खाते हैं मगर तुम तो महागन्दी हो।’

गंगा ने हंसते हुये कहा, “अरे पगले। तू तो निरा अक्ल का दुश्मन है। तमाम छोटी नदियां जो गंदगी मेरे आंचल में गिराती हैं, मैं उसे अपने बड़े भाई समुद्र के खजाने में गिरा देती हूँ।’… तो सारी गन्दगी का खजाना यह समुद्र ही है। सोचता हुआ वह सागर के पास गया और उसे धिक्कारने लगा तो सागर बोला, “यह तुम्हारा भ्रम है कि समस्त संसार की गंदगी का अन्तिम ठिकाना मैं हूँ। मैं तो सारी गन्दगी को भाप बनाकर उड़ा देता हूँ जो अंततः बादल बन जाती है।’

पुजारी बड़े चक्कर में पड़ गया तो उसने ऊपर को मुंह उठा कर बादलों से कहा कि “तुम तो महागन्दे हो, आखिर इतनी गन्दगी कैसे झेल लेते हो?’ तो बादल बोले, “भइया, जिसकी जितनी गन्दगी जहॉं से आयी है, उसी हिसाब से हम उसी के ऊपर वर्षा के रूप में टपका देते हैं।’ सुनकर पुजारी भौंचक्का रह गया।

यह तो दुनिया की गन्दगी है। उसके निस्तारण के लिये प्रकृति ने यह चरणबद्घ व्यवस्था की है कि जिसकी गन्दगी, उसी के ऊपर टपकती है। साल भर हम धरती को अपनी कारगुजारियों से गन्दा करते हैं। प्रकृति ने उसकी सफाई के लिये धुलाई का यह तरीका ईजाद किया है। यह तो बाह्य गन्दगी है जो बरसात में साफ हो जाती है लेकिन एक ऐसी गन्दगी भी है जो हमारे मन में बसी होती है। मनुष्य ने इस गन्दगी के निस्तारण के लिये भी एक तरीका निकाला है। इस सिद्घान्त के अऩुसार अपने मन की गन्दगी को अपने से बड़े को टांसफर कर दो। इससे मन का बोझ कुछ हल्का हो जाता है। फिर दूसरा इसे तीसरे को, तीसरा चौथे को और चौथा पांचवें को टांसफर करता चला जाता है।

उदाहरण के लिये यह जो हमारी व्यवस्था है, इसको हम एक मिनट के लिये भ्रष्टाचार का महासमुद्र मान लें तो स्थिति कफी हद तक स्पष्ट हो जाती है। जैसे यदि रिश्र्वत इस व्यवस्था का एक सच है तो इसकी विवेचना कुछ इस तरह से हो सकती है। इस व्यवस्था के निचले पायदान पर खड़ा जो आम आदमी है उसके मन में अपना काम दूसरों से पहले करवाने का खोट पैदा होता है यानी एक गन्दा विचार उसके मन में आता है तो वह इसके कार्यान्वयन के लिये एक शार्टकट की तलाश करता है तो उसे रिश्र्वत से ज्यादा सीधा-सपाट कोई दूसरा तरीका नहीं सूझता।

अब वह व्यक्ति इस व्यवस्था के एक छोटे हिस्से पर अपना नुस्खा आजमाता है। वह उस ऑफिस के चपरासी की मुट्ठी गर्म कर देता है। चपरासी इस गन्दगी का एक छोटा हिस्सा अपनी जेब के हवाले करके शेष राशि को छोटे बाबू की ओर बढ़ा देता है। बाबू उसमें से अपना हिस्सा लेकर बड़े बाबू की ओर धकेल देता है। बड़ा बाबू उसमें से अपना हक लेकर छोटे साहब को दे देता है। छोटे साहब इस गन्दगी को बड़े साहब की तरफ धकेल देते हैं। बड़े साहब इसे विभागाध्यक्ष के पास भेज देते हैं। फिर यह सचिव आदि से होती हुई इस सिस्टम के सर्वोच्च पायदान पर जा पहुँचती है।

लास्ट स्टेशन पर पहुँच कर यह गन्दगी जो कतरा-कतरा एकत्र होकर यहॉं तक पहुँची है, वो भ्रष्टाचार के एक महासागर में तब्दील हो जाती है। फिर यह सारी गन्दगी एक बादल का रूप अख्तियार कर लेती है और फिर जनता के हर उस हिस्से पर उसी अनुपात में बरसती है जहॉं से यह आयी थी। कहीं शराब के रूप में, कहीं साड़ी के रूप में, कहीं नकद कैश के रूप में चुनाव के वक्त यह मानसून की तरह बरसती है।

इस विश्र्लेषण से एक बात उभर कर सामने आती है कि मनुष्य के मन का यह जो मैल है, वह व्यक्तित्व से समष्टि तक पहुँचते-पहुँचते समाज के किसी भी हिस्से को अछूता नहीं छोड़ता। गन्दगी के इस साम्राज्य में कोई भी खुद को पूरी तरह से साफ-सुथरा नहीं रख पाता। कितना भी धर्मात्मा हो, कैसा भी सदाचारी हो, इसके साफ-सुथरे दामन पर यह गन्दगी अपना कोई न कोई दाग अवश्य छोड़ देती है।

इसी से भ्रष्टाचार एक ऐसी बिल्ली बन गयी है कि इसके गले में घंटी बांधने की किसी की हिम्मत नहीं पड़ती। यदि हम पाक-साफ हैं तो भी हमारे आसपास जितने भी भ्रष्टाचारी हैं, वे किसी न किसी रूप में हमसे ताल्लुक अवश्य रखते हैं। यदि उन पर कोई कड़ा प्रहार होता है तो उससे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी न किसी रूप में हमारे हितों को ठेस पहुँचती है। यदि हम खुद भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं तो किसी न किसी भ्रष्टाचारी को हमारा मूक समर्थन तो मिल ही रहा है। इसी से मैं भी गन्दा, तू भी गन्दा, गन्दा यह जग सारा, मानकर हमारी गन्दगी हमीं पर बरस रही है।

– प्रेमस्वरूप गंगवार

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