हैदराबाद मुक्ति संग्राम और आर्य-समाज

हैदराबाद राज्य का प्रथम संस्थापक ऩिजाम-उल-मुल्क (पहला ऩिजाम) था। इसी ऩिजाम ने मुगलों से दगाबा़जी कर राज्य को हड़प लिया था। औरंग़जेब के बाद मुगलों में सत्ता के लिए आपस में ही झगड़े-फसाद होते रहे और यह सिलसिला बढ़ता ही गया। इसका लाभ ऩिजाम-उल-मुल्क ने उठाया और सन् 1724 में दक्षिण प्रान्त में स्वयं को सुल्तान घोषित कर दिया।

हैदराबाद रियासत में इस वंश के कुल सात शासकों ने राज्य किया। यहॉं सन् 1724 से सन् 1948 तक ऩिजाम शाही का शासन था। निजाम शासकों के नाम इस प्रकार हैं-

  1. आसफजाह नवाब कमरूद्दीन किलिज खान।
  2. आसफजाह नवाब निजाम अली खॉं ऩिजाम-उल्ल-मुल्क
  3. आसफजाह नवाब सिकंदरजहॉं बहादुर
  4. आसफजाह नवाब नासिरूद्दौला बहादुर
  5. आसफजाह नवाब आफ़जदौला बहादुर
  6. आसफजाह नवाब मीर महबूब अली खॉं बहादुर
  7. आसफजाह नवाब मीर उस्मान अली खॉं बहादुर

इस ऩिजाम आसफिया खानदान को दक्कन पर दो सौ साल तक हुकूमत करने का अवसर मिला। मीर उस्मान अली खॉं (सातवां ऩिजाम) ने सन् 1911 से 1948 तक आसफजाही वंश के अंतिम शासक के रूप में शासन चलाया। हैदराबाद के 16 जिले थे। इस राज्य की जन-संख्या में नब्बे प्रतिशत हिन्दू व 10 प्रतिशत मुसलमान थे, किन्तु राजभाषा उर्दू थी और जन-सामान्य की भाषा हिन्दी थी। हैदराबाद राज्य जागीरदारी में बॅंटा हुआ था। शासन चलाने के लिए हिन्दुओं को भी राज-दरबार में सम्मान दिया जाता था। इनमें महाराजा किशन प्रसाद, राजा करन प्रसाद “करण’ आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम

निजाम हुकूमत हमेशा अंग्रे़जों का साथ देती रही। इतिहास इस बात का साक्षी है कि ऩिजाम ने अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए मुगलों से दगाबा़जी की थी। इसी प्रकार अंग्रे़ज और ोंच दोनों का साथ देकर उसने टीपू सुल्तान को भी धोखा दिया था। इसी कारण टीपू सुल्तान की हार हुई थी। इसके पश्र्चात भारत से अंग्रेजों की हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए सारे देश में स्वतंत्रता-संग्राम लड़ा जाने लगा। उस समय भी हैदराबाद की जनता पीछे नहीं रही।

17 जुलाई, 1857

मौलवी अलाउद्दीन, तुरेबा़ज खान और अमरसिंह लोधा के नेतृत्व में सैकड़ों वीरों ने पुतली बावली के समीप स्थित अंग्रेजों की रेजिडेंसी पर हमला किया। इस हमले को विफल करने में ऩिजाम ने अंग्रेजों का साथ दिया। इसके चलते आन्दोलन का नेतृत्व करने वालों को दीवान सर सालारजंग ने गिरफ्तार कर रेजिडेंसी के हवाले कर दिया।

18 जनवरी, सन् 1859 को जेल से भागने के कारण तुरेबा़ज खान को गोली मार दी गई। इसी प्रकार मौलवी अलाउद्दीन को भी 20 जून, 1859 को अण्डमान की जेल में भेज दिया गया, जहॉं सन् 1884 में उनका देहान्त हो गया। तुरेबा़ज खान व मौलवी अलाउद्दीन के साथ ही अमरसिंह नामक एक सिपाही और था, जिसे फॉंसी की स़जा दी गयी।

अमरसिंह लोधा की शहादत

अमरसिंह का एक अंग्रेज सिपाही से विवाद हो गया। सिकन्दराबाद की अंग्रेजी छावनी में सख्त कलामी के कारण उसे रेजिडेंसी में गिरफ्तार करके दीवान के पास भेजा गया। उसका कहना था कि “”देहली के तमाम अंग्रेजों का कत्ल कर दिया जाएगा। दिल्ली फतेह करने के बाद आन्दोलनकारी हैदराबाद आयेंगे। अब सिर्फ दो-तीन माह तक ही तुम्हारी हुकूमत चलेगी। देहली से हुजूर के नाम खत आ चुका है।”

सच्चाई का पर्दाफाश करने के कारण अमरसिंह लोधा सिपाही को फांसी दी गयी।

सन् 1862

महान ाान्तिकारी नेता नाना साहेब और तात्या टोपे ने हैदराबाद के सोलह जिलों का दौरा किया था, जिससे हैदराबाद के जिलों में अंग्रे़जों के विरुद्घ बगावत होने लगी थी।

मार्च, 1862 में स्वतंत्रता सैनानियों ने हैदराबाद की जनता में ाान्ति की ज्वाला भड़काने के लिये यहॉं के प्रमुख लोगों से संपर्क बनाना शुरू किया। बेगम बाजार, लालगीर स्कूल और ध्रुवपेट क्षेत्र के लोध क्षत्रियों से सम्पर्क बनाया गया। 1857 से ही यह क्षेत्र ाान्तिकारियों का गढ़ बन गया था। ाांतिकारी साधु के रूप में यहॉं ठहरा करते थे। जब इस बात का पता ऩिजाम और अंग्रे़जी रेजिडेंसी को चला, तो ाांतिकारी साधु के वेश में यहॉं से निकल पड़े थे। इसी कारण सन् 1857 से 1947 तक की सारी घटनाएँ हैदराबाद की आजादी से संबंध रखती हैं।

1875

प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम विफल होते ही आर्य- समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द जी ने अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए सर्व प्रथम हिन्दुओं के कुंभ-मेले में देश के राजा-महाराजाओं से सम्पर्क बनाया था। महारानी झॉंसी की रानी लछमीबाई, रामगढ़ की रानी अवन्तीबाई लोध क्षत्राणी, प्रसिद्घ ाान्तिकारी नाना साहेब, तात्या टोपे आदि से मिलकर एक योजना बनायी थी। इसी योजना का रूप सन् 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम के रूप में प्रसिद्घ हुआ, जब यह ाान्ति विफल हुई तो इसे संगठित रूप से चलाने के लिए सन् 1875 में स्वामी दयानंद जी ने देश में आर्य-समाज की स्थापना की थी। आर्य-समाज के विद्वानों ने ही कांग्रेस के आन्दोलनों में सबसे अधिक भाग लिया था। हैदराबाद मुक्ति-संग्राम में भी लगभग सभी नेता आर्य-समाजी रहे। इन आर्य-समाजी नेताओं को कांग्रेस पार्टी के नेताओं के नाम से जाना जाता है।

1906

कांग्रेस के आन्दोलन को कमजोर करने के लिये अंग्रेजों ने मुसलमान नेताओं को भड़का कर सन् 1906 में मुस्लिम लिग की स्थापना कराई थी। इसी संस्थान ने देश का बंटवारा कर मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान बनवाया है।

सन् 1920

अंग्रेजों ने कांग्रेस के आन्दोलनों को कमजोर करने के लिये मुस्लिम नेता जिन्ना को भड़काया था। इसी प्रकार अंग्रेजों ने भारत के चार हिस्सों में चार पाकिस्तान बनाने की एक योजना लंदन में तैयार की थी। इस योजना के अन्तर्गत जूनागढ़ और हैदराबाद को भी पाकिस्तान का हिस्सा बनाने का विचार था।

सन् 1927

हैदराबाद को पाकिस्तान बनाने के लिये कट्टरपंथी मुस्लिम नेता बहादुर यारजंग ने मजलिस तबलीग-ए-ईस्लाम की स्थापना की। इस संस्था का उद्देश्य हैदराबाद में मुसलमानों की आबादी बढ़ाना था। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिये बहादुर यारजंग ने उत्तर-प्रदेश से मुसलमानों को बुलवाया और इस कार्य को सफल बनाने के लिए राज्य सरकार ने अपना सहयोग दिया। कट्टरपंथी, मुल्ला-मौलवियों ने जबरन हजारों गरीब हरिजनों को डरा-धमका कर इस्लाम में दीक्षित करना शुरू किया। परिणामस्वरूप आर्य-समाज हिन्दू-समाज एवं हिंदुस्तान की रक्षा के लिए मैदान में कूद पड़ा। हैदराबाद में सार्वजनिक जलसे करने पर पाबन्दी थी।

ऐसे समय आर्य-समाज के जलसे देवीदीन बाग में होते थे। इस संकट की घड़ी में सर्वप्रथम धूलपेटवासियों ने सिर पर कफन बांध कर जुमेरात बाजार के मैदान में आर्य-समाज का जलसा कराया। इस जलसे में आर्य-समाज के पं. धर्म भिक्षु जी, पं.रामचन्द्र जी ने भाषण दिया था। इन आर्यों के भाषण से प्रभावित होकर जो हिन्दू लोगों ने मुसलमान धर्म को अपना लिया था, वे पुनः हिन्दू बन गये थे। इस कार्य के लिए महात्मा आनन्द स्वामी जी उर्फ खुशहालचन्द जी ने लाहौर से पॉंच हजार रुपये दान स्वरूप आर्य-समाज ध्रुवपेट को दिये। इसी समय से आर्य-समाज का प्रचार-प्रसार हैदराबाद में जोर-शोर से होने लगा। इस प्रचार के कारण ही हैदराबाद को पाकिस्तान बनाने के निजाम के नापाक मंनसूबे असफल हो गये। इसी कारण निजाम ने आर्य-समाज पर पाबन्दी लगा दी।

गांधी जी -1929

सन् 1929 में महात्मा गांधी जी हैदराबाद आये। इसके बाद पं.जवाहरलाल ने भी हैदराबाद का दौरा किया और तत्पश्र्चात कांग्रेस के अन्य नेताओं ने भी हैदराबाद का दौरा किया, किन्तु निजाम ने हैदराबाद को पाकिस्तान का हिस्सा बनाने के अपने मंसूबे और तेज कर दिये थे।

सन् 1933

“मजलिस इत्तेहादुल मुसलिम’ संस्था की स्थापना हैदराबाद में की गई। यह संस्था मुसलमानों को ाांतिकारियों के विरुद्घ भड़काने लगी। 16 अप्रैल, 1938 में मजलिस पार्टी के सदस्यों ने स्वतंत्रता-सेनानियों के गढ़ ध्रुवपेट के लोध क्षत्रियों पर ऩिजाम की पुलिस की मदद से हमला कर दिया। इस साम्प्रदायिक दंगे में ऩिजाम ने उल्टे धूलपेट के 24 आदमियों को गिरफ्तार कर संगीन मुकदमा चलाकर उन्हें बीस-बीस साल की कड़ी स़जा सुनायी।

सन् 1938

धूलपेट के ऐतिहासिक दंगों के बाद 24 अक्तूबर, सन् 1938 में हैदराबाद में राष्टीय कांग्रेस की स्थापना हुई।

सन् 1937

ऩिजाम ने हिन्दुओं के धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों पर पाबन्दी लगा दी थी। इस पाबन्दी के विरोध में आर्य-समाज ने आर्य-सत्याग्रह आन्दोलन का आरंभ किया। इस सत्याग्रह में देश-विदेशों से हजारों सत्याग्रहियों ने भाग लिया था। अन्त में इस सत्याग्रह के सामने निजाम को विवश होना पड़ा।

सन् 1939

हैदराबाद में कांग्रेस और आर्य-समाज के जोर-शोर को बढ़ते देख जिन्ना ने सन् 1939 में हैदराबाद आकर ऩिजाम से बातचीत की।

15 अगस्त,1947

सैकड़ों वर्षों की पराधीनता के बाद भारत-वर्ष 15 अगस्त, 1947 के दिन आ़जाद हुआ। देश के राजा-महाराजाओं ने भारत-संघ में मिलने की घोषणा की। किन्तु, हैदराबाद के ऩिजाम ने भारत-संघ में शामिल होने से इंकार कर दिया और हैदराबाद को पाकिस्तान का हिस्सा बनाने के नापाक इरादे से एक मुसलिम शासन की ऱजाकार सेना बनाई। ऱजाकार फौज की बागडोर लातुर के कट्टपंथी मुस्लिम नेता कासिम ऱिजवी के हाथों में सौंपी गई। इसके बाद ऱजाकार नेता कासिम ऱिजवी के आदेश पर हैदराबाद के सोलह जिलों में बसने वाले लाखों हिन्दुओं के घर लूटे गये, हिन्दुओं का बड़ी संख्या में कत्ल किया गया, हजारों हिन्दू औरतों को जबरन मुसलमान बनाया गया। इस प्रकार निजाम के राज्य में हिंदुओं पर अत्याचार होने लगे। इसकी रोकथाम के लिये भारत सरकार ने एम. मुंशी को हैदराबाद भेजा। किन्तु हैदराबाद के निजाम ने शान्ति के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। मजबूर होकर भारत के गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने जनरल चौधरी को पुलिस ऐक्शन ऑपरेशन की कार्यवाही के लिए हैदराबाद भेजा। लेफ्टिनेंट जनरल महाराज राजेन्द्र सिंह जी ने दक्षिण की ओर से नेतृत्व संभाला। यह कार्यवाही 13 सितम्बर, 1949 से 17 सितम्बर, 1948 तक की गई। विवश हो निजाम उस्मान अली खां ने भारतीय सेना के सामने हथियार डाल दिये और भारत-संघ में मिलने की घोषणा कर दी।

अतः हैदराबाद मुक्ति-संग्राम में और 1857 से 1948 तक की ऐतिहासिक घटनाओं में लोध क्षत्रियों और आर्य-समाजियों के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता। कांग्रेस अर्थात आर्य-समाजी नेताओं ने देश की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया। आज पुनः इसी प्रकार की देशभक्ति की अवश्यकता है।

– चतुरसिंह शास्त्री

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