लाई डिटेक्टर, नार्को एनालिसिस और ब्रैन मैपिंग सच उगलवाने के साइंटिफिक शस्त्र

अब तक के इतिहास की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री नोएडा के आरूषि हत्याकांड से अब बस पर्दा उठने ही वाला है। हो सकता है, जब तक ये पंक्तियां छपकर आपके सामने पहुंचें, सनसनीखेज हत्याकांड से तब तक पर्दा उठ चुका हो और पूरा देश इस बात को जान गया हो कि वास्तव में आरूषि और हेमराज का हत्यारा कौन था या थे? लेकिन यह बेहद जटिल मामले के रूप में हमेशा याद रखा जायेगा। पहले नोएडा पुलिस और फिर सीबीआई लगभग 1 महीने तक इस मामले में उलझी रही, तब कहीं जाकर इस मामले की तह तक पहुंचने में सीबीआई को कामयाबी मिली है।

इस कामयाबी का आधार बने वे साइंटिफिक टेस्ट जो डॉ. राजेश तलवार के कंपाउंडर कृष्णा पर किये गए और जिनके लिए अदालत से उचित इजाजत हासिल न किये जाने के कारण सीबीआई की खूब किरकिरी भी हुई। सीबीआई अगर आरूषि हत्याकांड मामले की तह तक पहुंचने की कामयाबी का दावा कर रही है तो इसका आधार 3 वैज्ञानिक जांच के तरीके हैं- लाइ डिटेक्टर या पॉलिग्राफी टेस्ट, नार्को एनालिसिस और ब्रेन मैपिंग। अब अपराधी बहुत होशियार हो गए हैं। उनमें पहले के जमाने के अपराधियों जैसा न तो भौंथरापन रहा है और न ही सहजता। यही कारण है कि अब घाघ हो चुके अपराधियों को पकड़ने के लिए पूरी दुनिया में वैज्ञानिक टेस्ट के नुस्खे इस्तेमाल में लाए जा रहे हैं। लाइ डिटेक्टर, नार्को एनालिसिस और ब्रेन मैपिंग ऐसे ही तरीके हैं।

सच उगलवाने के ये साइंटिफिक तरीके इस समय पूरी दुनिया में खूब इस्तेमाल किए जा रहे हैं। खासतौर पर जबसे पूरी दुनिया में आतंकवाद का शिकंजा कसा है तो उनके स्लीपर सेल नष्ट करने के लिए जांच एजेंसियां इन पूछताछ के तरीकों का खूब इस्तेमाल कर रही हैं। कई देशों में इन्हें अदालती सबूत माना जाता है तो कई देशों में अभी इन्हें अदालती सबूतों का दर्जा हासिल नहीं है। खुद हमारे यहां भी अभी अदालत की नजरों में इन पूछताछ के तरीकों का  बतौर सबूत कोई आस्तत्व नहीं है। लेकिन सच उगलवाने के इन तरीकों से जांच एजेंसियों को अपनी जांच में निर्णायक दिशा हासिल हो जाती है।

जहां तक सच उगलवाने के इन साइंटिफिक तरीकों के आस्तत्व में आने का सवाल है तो हमारे यहां भले अभी ये नये तरीके हों या हाल के सालों में इन्होंने पहचान पाई हो, मगर विदेशों में काफी अरसा पहले से ही इनका खूब चलन है। सच उगलवाने के इन तीन तरीकों में सबसे कारगर तरीका नार्को एनालिसिस समझा जाता है। नार्को एनालिसिस की शुरूआत सन् 1922 में डलास (अमेरिका) की एक जेल में हुई थी। हालांकि अभी भी इसे स्वीकार्य सबूत नहीं माना जाता है, लेकिन इस बात पर पूरी दुनिया की जांच एजेंसियां एकमत हैं कि नार्को एनालिसिस से जांच-पड़ताल को सही दिशा मिल जाती है। क्योंकि इसके जरिए काफी हद तक चतुर से चतुर अपराधी से सच उगलवाया जा सकता है। साथ ही इस तरीके का फायदा यह है कि इससे किसी भी तरह की शारीरिक क्षति या नुकसान नहीं होता। कहते हैं पुलिस डाल-डाल तो अपराधी पात-पात। यह सिलसिला नया नहीं है, शुरू से ही अपराधी और अपराधियों को पकड़ने वाली पुलिस या ऐसी ही व्यवस्था, दोनों हमेशा इस फिराक में रहे हैं कि एक-दूसरे से आगे निकल जाएं।

यही कारण है कि अगर अपराधी नये-नये तरीकों से अपराध करते रहे हैं तो इन अपराधियों को पकड़ने वाली पुलिस भी तरह-तरह के प्रयोगों और उपायों के जरिए सच उगलवाने के तरीके विकसित करती रही है। प्राचीन काल में संदिग्ध अपराधी का पता लगाने के लिए संदिग्ध व्यक्ति को जमकर शराब पिला दी जाती थी और जब वह शराब के नशे में चूर होकर अपने दिलोदिमाग का नियंत्रण खो देता था तो उससे अपराध के या दूसरे राज़ उगलवा लिए जाते थे। निजी तौर पर यह काम आज भी बहुत जगहों पर होता है और इसी से प्रेरित होकर कुछ ऐसे ड्रग्स भी बनाए गए, जिनके जरिए सच उगलवाने को नार्को एनालिसिस टेस्ट कहा जाता है। नार्को यूनानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है संज्ञा-शून्य अथवा चेतना-शून्य स्थिति में होना। इस तकनीक के चलते संबंधित व्यक्ति को बार्बीट्यूरेट्स ड्रग्स अथवा ट्रुथ सीरम दे दिया जाता है जिसका असर उस व्यक्ति पर 10 से 12 घंटे तक रहता है।

कई बार यह असर 12 से 14 घंटे तक भी रहता है। जब संबंधित व्यक्ति इस ट्रुथ सीरम के असर में होता है तो वह जानबूझकर किसी सच को छुपा पाने की स्थिति में नहीं रह जाता। नतीजतन, सच्चाई खुलकर सामने आ जाती है। यह ट्रुथ सीरम वास्तव में सोडियम पेंटोथल और स्कोपोलामीन होता है। इस ड्रग या रसायन से दिमाग का जो उच्च बाहरी हिस्सा (कोर्टिकल) है, उसके काम करने की क्षमता खत्म हो जाती है। यह वैज्ञानिक सिद्धांत है कि झूठ बोलना सच बोलने से ज्यादा जटिल है। दरअसल कोर्टिकल के शिथिल होते ही व्यक्ति झूठ बोलने में या तो असमर्थ हो जाता है या लड़खड़ाने लगता है। इसी स्थिति के चलते वह पकड़ा जाता है।

आदमी जब झूठ बोलता है तो उसमें घबराहट या नर्वसनेस बढ़ जाती है। यही लाइ डिटेक्टर या पॉलिग्राफी टेस्ट के तहत अपराधी को पकड़ने का या अपराधी पर शिकंजा कसने का आधार होता है। जब किसी संदिग्ध अपराधी से सच उगलवाने के इस दूसरे तरीके के जरिए (देखें बॉक्स-क्या हैं) सवाल-जवाब किया जाता है, उस दौरान उसके ब्लड प्रेशर, दिल की धड़कनों, सांस और त्वचा के स्पंदन में आए अचानक परिवर्तनों के आधार पर यह पता लगा लिया जाता है कि जिस व्यक्ति से सवाल किए जा रहे हैं, वह सच बोल रहा है या झूठ। हालांकि पॉलिग्राफी टेस्ट की विश्र्वसनीयता को समय-समय पर चुनौती मिलती रही है। इसीलिए इसे आधिकारिक अदालती सबूत नहीं माना जाता। पॉलिग्राफी टेस्ट मुख्य रूप से एंग्जाइटी के संकेतों को मापता है, जो झूठ बोलने की प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप उभरते हैं। लेकिन जरूरी नहीं है कि एंग्जाइटी के ये संकेत महज अपराध करने के कारण ही पैदा हों।

यह दूसरी वजहों से भी पैदा हो सकते हैं साथ ही एंग्जाइटी के स्तर को नियंत्रित भी किया जा सकता है। मतलब यह कि इसके निष्कर्ष अंतिम रूप से किसी को अपराधी साबित करने का आधार नहीं हो सकते। जहां तक ब्रेन मैपिंग का सवाल है तो इसे सच उगलवाने के तीन साइंटिफिक तरीकों में सबसे ज्यादा साइंटिफिक और प्रभावशाली समझा जाता है। इस तरीके में जिस संदिग्ध व्यक्ति से सच उगलवाना होता है। उसे घटनाक्रम का अनुमानित नाट्य रूपांतरण दिखाया जाता है और फिर उसके दिमाग में होने वाली हलचल पर नजर रखी जाती है। माना जाता है कि अगर संदिग्ध व्यक्ति अपराधी है तो उसके दिमाग में उस घटनाक्रम की पहले से ही मौजूद मेमोरी इस नाट्य रूपांतरण को देखकर दिमाग में हलचल पैदा कर देगी और ऐसा ही होता है। जिस कारण संदिग्ध व्यक्ति के शरीर में विभिन्न तरह के शारीरिक परिवर्तन नजर आने लगते हैं। मसलन, उन दृश्यों को देखकर, शब्दों को सुनकर और ध्वनियों का एहसास करके दिमाग में मौजूद पहले से ही भंडारित मेमोरी तेजी से प्रतिक्रिया करती है। इस दौरान दिमाग में उठने वाली तेज तरंगें ईईजी सेंसर युक्त हेडबैंड में हलचल मचा देती हैं। जैसे किसी राडार में अनुकूल संकेत आते ही वह तेजी से हरकत करने लगता है, उसी तरह की हरकतें ब्रेन मैपिंग टेस्ट के दौरान अपराधी भी करने लगता है। उसे नोट कर लिया जाता है और उसके आधार पर यह माना जाता है कि संदिग्ध व्यक्ति जो चीज छुपा रहा है, वह अपराध की सच्चाई है।

इस तकनीक का पेटेंट फॉरवेल्स ब्रेन फिंगर प्रिंटिंग लेबोरेट्रीज के पास है और उसका दावा है कि जांच की यह विधि 100 फीसदी सटीक है। अमेरिका की एक अदालत ने भी ब्रेन फिंगर प्रिंटिंग तकनीक को कानूनी पैमानों पर सही उतरने वाला पाया है। इसलिए वैज्ञानिक सबूत के आधार पर वहां की अदालतें इसे स्वीकार भी करती हैं। लेकिन दुनिया के ज्यादातर देशों में अभी सच उगलवाने के इन साइंटिफिक शस्त्रों को वैधानिक सबूत का दर्जा नहीं दिया गया है। फिर भी इन साइंटिफिक शस्त्रों का आज पूरी दुनिया में हर जगह जबरदस्त उपयोग हो रहा है और इन तरीकों से पुलिस व खुफिया एजेंसियों को अपराधियों को पकड़ने में किसी हद तक कामयाबी भी खूब मिल रही है। इस कारण ये साइंटिफिक शस्त्र न सिर्फ लोकप्रिय हैं, बल्कि इनका दिन पर दिन उपयोग भी बढ़ता जा रहा है।

 

नार्को एनॉलिसिस टेस्ट

नार्को एनॉलिसिस टेस्ट फॉरेंसिक साइंस लेबोरेट्री में किया जाता है। इस दौरान जांच अधिकारी के अलावा मनोवैज्ञानिक, डॉक्टर और फॉरेंसिक एक्सपर्ट मौजूद रहते हैं। इस टेस्ट के तहत सबसे पहले जिसका नार्को एनालिसिस किया जाना होता है, उसे सोडियम पेंटोथल नामक रसायन का इंजेक्शन दिया जाता है। इस इंजेक्शन के लगते ही कुछ ही क्षणों में व्यक्ति मूर्छा या अर्धचेतना की स्थिति में पहुंच जाता है। इस दौरान उसके दिमाग में कुछ भी नहीं चलता। कहने का मतलब है कि उसकी तर्क शक्ति लगभग क्षीण हो जाती है। वह गलत और सही सोचने की स्थिति में भी नहीं रह जाता। एक तरह से उसमें रीजनिंग की शक्ति बिल्कुल खत्म हो जाती है। इस दौरान जब उससे सवाल किए जाते हैं तो वह उन सवालों का जवाब देते समय झूठ नहीं बोल पाता है। जिस कारण वह सच उगल देता है। सोडियम पेंटोथल ड्रग सेफ ड्रग है, इसलिए जैसे ही टेस्ट खत्म होता है, व्यक्ति फिर से पूरी तरह सचेत हो जाता है। उसे याद ही नहीं रहता कि उसने टेस्ट के दौरान क्या जवाब दिया था।

क्या है लाइ डिटेक्टर टेस्ट

लाइ डिटेक्टर टेस्ट या पॉलीग्राफी टेस्ट दरअसल कोई व्यक्ति झूठ बोल रहा है या नहीं, यह जांचने का मशीनों के जरिए एक वैज्ञानिक तरीका है। इस टेस्ट के दौरान जिस व्यक्ति से सच उगलवाना होता है यानी जिसका टेस्ट करना होता है, उसके शरीर में कुछ मेडिकल और इलेक्ट्रोनिक डिवाइस लगाए जाते हैं। छाती, पेट, हाथ और कुछ अन्य जगहों पर ट्यूब तार आदि डाले जाते हैं, साथ ही बांह में ब्लड प्रेशर जांचने वाली डिवाइस फिट की जाती है। इन तमाम उपकरणों को एक रंगीन मॉनिटर से जोड़ा जाता है।

इस टेस्ट के दौरान जिस पर शक होता है, उससे जांच-अधिकारी सवाल करते हैं और संदिग्ध अपराधी को उन सवालों के जवाब सिर्फ हां या न में देना होता है। यह बात उसे पहले ही बता दी जाती है। विशेषज्ञों के मुताबिक सवाल-जवाब के क्रम में जब संबंधित व्यक्ति झूठ बोलता है तो उसके मन में अचानक डर का भाव पैदा होता है और डर का भाव पैदा होते ही शरीर में एक खास तरह का हार्मोन रिलीज होने लगता है जिसके कारण उस शख्स की शारीरिक गतिविधियों में आए फर्क साफ-साफ मॉनिटर में चमकने लगते हैं। मसलन, झूठ बोलते ही उसका ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है, दिल की धड़कनें तेज हो जाती हैं, वह तेज-तेज सांस लेने लगता है और हथेलियों व पैर के तलवों से पसीना छूटने लगता है जिससे विशेषज्ञ समझ जाते हैं कि संबंधित व्यक्ति झूठ बोल रहा है। इसी आधार पर इस टेस्ट के नतीजों का विश्लेषण किया जाता है।

ब्रेन मैपिंग

ब्रेन मैपिंग या ब्रेन फिंगर प्रिंटिंग के जरिए किसी व्यक्ति से सच उगलवाने का तरीका अमेरिका के वैज्ञानिक लॉरेंस फॉरवेल ने विकसित किया था। यह ईईजी/पी-300 आधारित टेक्नोलॉजी है। ब्रेन मैपिंग टेस्ट के दौरान संदिग्ध व्यक्ति को एक तकनीकी उपकरणों से सुसज्जित हेलमेट पहना दी जाती है। इस हेलमेट में सेंसर लगे होते हैं और हेलमेट में मौजूद तमाम डिवाइस सीधे कंप्यूटर से जुड़े होते हैं। जब यह टेस्ट किया जाता है तो उस दौरान फॉरेंसिक एक्सपर्ट भी मौजूद होता है। इस टेस्ट में सवाल-जवाब नहीं होते बल्कि संदिग्ध व्यक्ति को संबंधित अपराध के घटनाक्रम को अनुमान के आधार पर रिकंस्ट्रक्ट करके दिखाया जाता है। इसे दिखाए जाने के समय उस पर बराबर सजग नजर रखी जाती है। विशेषज्ञों के मुताबिक अगर आपने किसी घटना को अपनी आंखों से देखा है तो उसकी मेमोरी एक क्रम से आपके दिमाग में स्टोर हो जाती है और जैसे ही ऐसे व्यक्ति को वही या उससे मिलती-जुलती कोई घटना दिखायी जाती है तो उसके दृश्य देखते ही पहले से मौजूद दिमाग की जानकारी रिकॉल होती है यानी दिमाग इस मिलते-जुलते घटनाक्रम को देखते ही चौकन्ना हो जाता है और शारीरिक गतिविधियों में भारी असंतुलन दिखने लगता है। कंप्यूटर में दिखने वाली फिजियोलॉजिकल एक्टिविटी के आधार पर विशेषज्ञ यह तय करते हैं कि संदिग्ध व्यक्ति झूठ बोल रहा है या नहीं। यह बड़े काम का टेस्ट समझा जाता है लेकिन कोर्ट में इन तीनों ही टेस्टों को बतौर सबूत पेश नहीं किया जा सकता, क्योंकि इनकी बतौर सबूत अहमियत कुछ नहीं है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन तीनों ही टेस्टों से जांच की दिशा में निर्णायक दिशा मिलती है।

– एन.के. अरोड़ा

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