भयावह है विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र की यह अमानवीयता

दुनियाभर में फैले परंपरागत रुढ़िवाद और अंधविश्र्वास के तिलिस्म को तोड़ कर वैज्ञानिक उपलब्धियों ने जिस समतामूलक वातावरण के निर्माण की आधारशिला रखी थी, लगता है वह दरक रही है। ऐसा हाल ही में हुए कुछ वैज्ञानिक शोधों और उनको अमल में लाने के व्यापारिक, नस्लीय व जातीय आधारित भेदभावपूर्ण रवैये से लगने लगा है। वर्तमान में आश्र्चर्य बन रहे अनुसंधान, जैव-वैज्ञानिक रूढ़िवाद को जन्म देने के साथ-साथ वंचित, गरीब, दलित व पिछड़ों के हितों को भी दरकिनार करते हुए लोकहित की बजाय पूंजीवादी हितों का संरक्षण करते नजर आ रहे हैं। इस तरह के शोध अथवा प्रयोग नये सिरे से सामाजिक संरचना की बुनियाद, पूंजी आधारित जन्मजात व आनुवांशिक संस्कारों के आधार पर रखने की वकालत कर रहे हैं। पश्र्चिमी देशों के वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी इन सवालों को तमाम प्रयोग और सर्वेक्षणों के हवाले से पुरजोर तरीके से उठा रहे हैं। जीव वैज्ञानिकों के इस रूढ़िवाद का विस्तार भारतीय धरातल पर भी प्रगति एवं कथित विकास के बहाने हो रहा है, जो खतरनाक है।

जीव वैज्ञानिक रुढ़िवाद और उसके पूंजी आधारित उपयोगों का घटाटोप पूरी दुनिया में मंडरा रहा है। विकासशील देशों में तो इस घटाटोप के संकट ने आधी आबादी को खत्म कर देने की एक तरह से शुरुआत ही कर दी है। हाल ही में गुड़गांव में विदेशियों को प्रमुखता देने वाले एक निजी चिकित्सालय में किडनी प्रत्यारोपण के रैकेट का भंडाफोड़, बढ़ते वैज्ञानिक रुढ़िवाद की ओर इशारा करता है कि किस बेरहमी से 600 से भी ज्यादा मजदूरों की किडनियां धोखे से निकालकर विदेशियों के शरीर में 25-25 लाख रुपयों में प्रत्यारोपित कर मजदूरों को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया। ये लोग क्या बिना उपचार के शेष जीवन व्यतीत कर पाएंगे?

जीव वैज्ञानिक रुढ़िवाद और प्रगति के अंधविश्र्वास की बानगी के तौर पर हम रोहतक के चिकित्सक दंपत्ति के उस मामले को भी देख सकते हैं जिसमें एक डॉक्टर मॉं ने अपने ही मंदबुद्धि बालक की बुद्धि बढ़ाने की दृष्टि से अपने ही दूसरे तेज बुद्धि बेटे का रक्त मंदबुद्धि बालक की शिराओं में ट्रांसप्लांट कराने के फेर में एक बेटे के प्राण ही हर लिए। आमतौर से हम अशिक्षित लोगों द्वारा हसरत की पूर्ति के लिए अपनी ही संतानों की बलि दे देने की घटनाओं की खबरों से रूबरू होते रहते हैं और ऐसी घटनाओं को अज्ञानता के चलते अंधविश्र्वास का कारण मानते हैं। लेकिन एक एमबीबीएस चिकित्सक मॉं द्वारा बुद्धि को बेहतर बनाए जाने के इस प्रयोग और ऐसी महत्वाकांक्षा को क्या कहें? दरअसल बुद्धि और पूंजी की समन्वित शक्ति से जिस वातावरण का निर्माण करके, जिस तरह की नई सामाजिक संरचना का ताना-बाना बुना जा रहा है, उसके निष्कर्षों के चलते ऐसी ही मानसिकता पनप रही है कि अब जैसे दुनिया में मंद बुद्धियों के लिए कोई जगह ही नहीं रह गई है। लिहाजा बुद्धि या तो कलपुर्जों की तरह दुरुस्त करो अथवा मंद बुद्धि व्यक्ति की इहलीला ही खत्म करो। जीव वैज्ञानिक रुढ़िवाद और बढ़ते वैज्ञानिक अंधविश्र्वास की इससे क्रूर मिसाल शायद ही कोई दूसरी हो।

भारत में चिकित्सा के बहाने इस बर्बरता का सिलसिला कोई नया नहीं है, 90 के दशक में सिरूर (महाराष्ट्र) के सरकारी मानसिक चिकित्सालय में उपचार करा रही महिलाओं के गर्भाशय निकाल लिए गए थे। इस तरह की घटनायें बढ़ते जीव-वैज्ञानिक रूढ़िवाद का अहसास कराती हैं। कमोबेश ऐसी ही सोच के चलते इंग्लैण्डवासी 21 भारतीय पंजाबी भाषी महिलाओं पर वहॉं के जीव वैज्ञानिकों द्वारा रेडियोधर्मी लौह लवणों के प्रयोग का मामला सामने आया था। दरअसल ये महिलायें एनीमिया (रक्ताल्पता) की शिकायत लेकर इंग्लैण्ड के एक अस्पताल में उपचार के लिए गई थीं। चिकित्सकों ने यह अंदाज लगाया कि परंपरागत भारतीय भोजन के कारण इन महिलाओं के खून में लौह-तत्व की कमी है। इस निष्कर्ष पर पहुँचते ही चिकित्सकों ने महिलाओं पर गिनीपिंग की तर्ज पर प्रयोग शुरू कर दिए। फिर क्या था, महिलाओं के शरीर में लौह-तत्व ढूंढने के लिए, उपचार के बहाने रोटियों में रेडियोधर्मी यौगिक मिलाकर उन्हें ये रोटियां खिलानी शुरू कर दीं। रेडियोधर्मी इस जहर ने इन महिलाओं को मरणासन्न स्थिति में ला दिया। इस पूरे मामले का खुलासा बीबीसी ने “डेडली एक्सपेरीमेंट’ फिल्म बनाकर करते हुए किया कि उक्त अस्पताल, अस्पताल न होकर “परमाणु शोध संस्थान’ था।

इंग्लैण्ड में जीव वैज्ञानिक रूढ़िवाद की जड़ें कितनी गहरी हैं, इसका पता पिछले दशक में किए गए एक शोध के जरिए दो साल के आंकड़ों की छानबीन से चलता है। इंग्लैण्ड की 6 करोड़ की आबादी में, 12 लाख लोग अफ्रीकी और कैरेबियाई देशों के हैं। इनमें से दस प्रतिशत लोग जेलों में हैं। अपनी आबादी के अनुपात के मुकाबले यह संख्या कहीं नौ गुना ज्यादा है। इंग्लैण्ड की जेलों में एक चौथाई महिला कैदी काली चमड़ी वाली हैं, काले लोगों से निपटने का यहॉं अपना तौर-तरीका है, पहला शक कालों पर किया जाता है और दोषी पाए जाने पर उन्हें सजा भी गोरों से ज्यादा दी जाती है। अमेरिका में सातवें दशक तक मानव नस्ल सुधारने के बहाने इतनी बर्बरता कायम थी कि वहॉं के चिकित्सकों की सलाह पर अधिकारियों को इतने अधिकार मिले हुए थे कि वे आनुवांशिक रूप से कमजोर, मंदबुद्धि और मानसिक विकलांगों को बधिया (नपुंसक) कर देने की मंजूरी तक दे सकते थे। दूसरे विश्र्वयुद्ध के दौरान तो ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल ने खुला ऐलान किया था कि युद्ध में घायल सभी विकलांगों को मार देना चाहिए, ताकि रोगी का संक्रमण प्रजनन के बाद उनकी संततियों में वंशानुगत रूप से न पहुँच पाए।

नस्लीय और जीव वैज्ञानिक रुढ़िवाद के चलते ही यूरोपीय चिकित्सकों ने पूरी दुनिया में यह अवधारणा प्रतिपादित कर दी थी कि एड्स के पहले वायरस अफ्रीका में पाए जाने वाले “ग्रीन मंकी’ प्रजाति के बंदर में पाए गए। बंदर से यह अफ्रीका, फिर अमेरिका के लोगों के शरीर में पहुँचा। वहॉं से इस जानलेवा बीमारी के वायरस का विस्तार पूरी दुनिया में हो गया। लेकिन इस वायरस पर हुए नये अनुसंधानों ने एड्स के जन्म के अमेरिकी तथ्य को सर्वथा झुठला दिया है। अफ्रीकी बुद्धिजीवियों ने बाद में कहा कि नस्लीय सोच के चलते श्र्वेत लोग हर बुराई को अश्र्वेतों पर लादने के तरीकों की खोज में लगे रहते हैं।

अक्सर विज्ञान प्रकृति के समक्ष एक जबरदस्त चुनौती बनकर खड़ा होता है और यह माना जाता है कि विज्ञान के पास प्रत्येक वस्तु का विकल्प है। मसलन, हर वह चीज जो विज्ञान की कसौटी पर खरी नहीं उतरती उसकी आपूर्ति किसी वैज्ञानिक वस्तु या जॉंच से की जा सकती है। लिहाजा कुण्डली मिलाने की भारतीय ज्योतिष परंपरा को नकारते हुए कुछ समय पहले चिकित्साशास्त्रियों ने सफल दांपत्य के लिए वर-वधूू के रक्त की जॉंच का सुझाव दिया था। उनके अऩुसार इस जॉंच से वर-वधू की आनुवंशिक खूबियों व खामियों के साथ-साथ उनकी संतान के बारे में भी स्वास्थ्य संबंधी संकेत दिए जा सकते हैं। इस दावे से यह स्पष्ट होता है कि कुछ लोग जन्मजात श्रेष्ठ होते हैं और दुनिया को सुचारु रूप से चलाए रखने के लिए ऐसे ही लोगों की वंशवृद्धि होती रहनी चाहिए। वंशवृद्धि के इस आनुवंशिक सिद्धांत के विस्तार की अगली कड़ी है “मानव क्लोन’ अर्थात सृष्टि के वैविध्य और बहुलता को नकारते हुए अपने ही शरीर के अंश की कलम लगाइए और समान बुद्धि व शरीर से हमशक्ल लोगों की वंशवृद्धि करते हुए अपने पूंजीवादी साम्राज्य के अधिपति बने रहिए।

हाल ही में कैलिफोर्निया में क्लोन पद्धति के जरिए पॉंच इंसानी भ्रूण तैयार करने की खबर आई है। हालांकि इस पर आश्र्चर्य इसलिए करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि इसके पूर्व फरवरी, 1997 में डॉली नामक भेड़ का क्लोन और 2003 में गाय, भैंस, खच्चर, चूहे और मुर्गों के क्लोन तैयार किए गये थे। चुंनाचे मानवतावादियों के दबाव के चलते अमेरिका ने दावा किया कि पॉंचों भ्रूणों को नष्ट कर दिया गया है। यही नहीं अमेरिका ने मानव क्लोन तैयार किए जाने की गतिविधियों को जघन्य अपराध भी घोषित कर दिया है। बावजूद इसके यह आशंका तो बनी ही हुई है कि कालांतर में मनुष्य का हमशक्ल क्लोन अस्तित्व में आकर मानव सभ्यता के दुरुपयोग का एक बड़ा कारण बन सकता है। यदि ऐसा संभव हो जाता है तो मानव जाति की प्रकृतिजन्य विविधता और विलक्षणता भी खत्म हो जाएगी और क्लोन पूंजीपतियों की वंश परंपरा की सुरक्षा का एक कवच भर रह जाएगा।

क्लोन के औचित्य और नैतिकता के परस्पर विरोधी दावों के बावजूद इटली, ब्रिटेन और अमेरिका के वैज्ञानिक 2001 में ही समुद्र में डेरा डालकर मानव क्लोन तैयार करने के लिए जुट गए थे। उन्हें उम्मीद थी कि 2005 तक पृथ्वी पर वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित पहला मनुष्य अवतरित हो जाएगा। 2005 में तो नहीं लेकिन संभवतः हाल फिलहाल वैज्ञानिक यह करिश्मा कर दिखायेंगे। इस मनुष्य की विडम्बना यह होगी कि उसकी शक्ल और लक्षण हुबहू उस व्यक्ति जैसे होंगे, जिसका वह क्लोन है। उसकी शारीरिक विलक्षणता व मौलिक सोच खत्म हो जाएगी। चिंताजनक बात यह भी रहेगी कि उसकी रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता कम होगी। इस कारण उसके जल्दी मर जाने की आशंका हमेशा बनी रहेगी। शायद इसीलिए क्लोन पद्धति से डॉली नामक भेड़ तैयार करने वाले पहले ब्रिटिश वैज्ञानिक डॉ. इयान विल्मट को बयान जारी करते हुए कहना पड़ा था कि जानवरों को तैयार करने वाली क्लोन तकनीक से मनुष्य तैयार किया गया तो इसके घातक परिणाम सामने आएंगे। क्लोन से मानव तैयार करने के लिए कई अमानुषिक प्रयास करने होंगे, क्योंकि भेड़ को ही तैयार करने में उन्हें 270 प्रयास करने पड़े थे।

क्लोनिंग से ही जुड़ा एक मुद्दा मूल कोशिकाओं या स्टेम सेल को लेकर छिड़े विवाद का है। इन कोशिकाओं की विशेषता यह है कि इनके जरिए शरीर के किसी भी अंग के ऊतकों का विकास किया जा सकता है। ये कोशिकायें भ्रूण में पाई जाती हैं, इसलिए इनका इस्तेमाल करने के लिए भारी तादाद में भ्रूण पैदा और नष्ट करने होंगे। अमेरिका में भारी विरोध के बाद इस तरह के प्रयोगों पर रोक लगा दी गई है, लेकिन दूसरे देशों में यह मामला अभी तूल पकड़ ही रहा है। भ्रूण को हम जीवित प्राणी मानें न मानें, यह सवाल तो कायम है ही, अगर ऊतकों के निर्माण के लिए क्लोनिंग से भ्रूण पैदा होने लगे तो उन भ्रूणों को इंसान में बदलने के सिलसिले को कैसे रोका जा सकेगा?

यह तर्क दिया जा सकता है कि क्लोनिंग मानव जाति के लिए भले ही अजबनी हो, इसे पूरी तरह अप्राकृतिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अमीबा कुछ इसी तरीके से अपनी कोशिकाओं का विभाजन करता रहता है। लेकिन यह तर्क उचित नहीं है। हमें सिर्फ प्रक्रिया ही नहीं, उसके नतीजों पर भी ध्यान देना होगा। क्लोनिंग के जरिए पैदा हुए इंसान अगर विकलांग और अक्षम निकले तो उनकी दशा के लिए जिम्मेदार कौन होगा? और फिर किसी को सिर्फ इस अहंकार के चलते मानव जीवन से खिलवाड़ की इजाजत नहीं दी जा सकती कि उसकी संतान उस जैसी दिखे। आखिर शारीरिक समानता का मतलब मानसिक एकरूपता तो नहीं है। वास्तव में क्लोन भूमण्डलीकरण के पक्ष में बहुलतावाद को खत्म करने की क्रूर व एकांगी साजिश है।

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