बगुलामुखी – सर्वसिद्धि साधना

Mataभारत में देव-पूजन की परंपरा अत्यंत प्राचीनकाल है। देव से अभिप्राय उस सत्ता से है, जो अतिमानवीय मंगलमयी तथा मानव द्वारा उपास्य है। यह सत्ता जन्म-मरण के बंधन से परे है। “देवी’ शब्द का प्रयोग भी उसी अर्थ में होता है, जिस अर्थ में “देव’ का। भक्ति-साहित्य में देवी को स्वतंत्र शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है। वह नित्य है और समस्त संसार का उद्भव उसी से होता है।

नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया
सर्वमिदं ततम्।

“अग्निपुराण’ में उल्लेख है कि दस महान विद्याओं में बगुलामुखी सिद्ध विद्या हैं –

सत्ये काली च श्री
विद्या कमला भुवनेश्र्वरी

सिद्ध विद्या महेशानि
त्रिशक्तिर्बगुला शिवे।।

यहॉं पर बगुला को त्रिशक्ति रूपिणी के रूप में स्वीकार किया गया है। न्याय-प्राप्ति हेतु बगुलामुखी साधना अत्यंत उपादेय स्वीकार की गई है। इस साधना से साधक भयरहित हो जाता है और शत्रु से उसका त्राण होता है। बगुलामुखी का स्वरूप रक्षात्मक तथा शत्रुविनाशक है।

बगुलामुखी शब्द के संबंध में आमतौर पर लोगों में भ्रम पाया जाता है। आमतौर पर अर्थ उस देवी के रूप में लिया जाता है, जिसका मुख बगुला पक्षी के समान है। शास्त्र सम्मत अर्थ है कि बगुलामुखी वह शक्ति है, जो शत्रु कृत अभिचार को निकाल दे या दूर कर दे। “स्वतंत्र तंत्र’ में देवी के आविर्भाव का भी वर्णन है। इसके अनुसार, जब संसार में प्रकृति-नाश के लिए भीषण आँधी-तूफान उठा, तो विष्णु भगवान इस संकट को टालने हेतु तपस्या करने लगे। कहते हैं, उसी समय सौराष्ट्र के पीत-सरोवर में भगवती बगुलामुखी का आविर्भाव हुआ। यह आविर्भाव “वीर रात्रि’ को स्वीकार किया जाता है। वीर रात्रि वह है, जो चतुर्दशी, सोमवार एवं कुल नक्षत्र से युक्त हो।

तंत्र ग्रंथों में इस देवी के अनेक साधकों का उल्लेख है। एक वृत्तांत के अनुसार इस महाविद्या का उपदेश सर्वप्रथम ब्रह्माजी ने सनकादि ऋषियों को दिया। फिर नारद व परशुराम आदि को यह उपदेश प्राप्त हुआ। ऐसी प्रसिद्धि है कि भगवान परशुराम को भगवती की कृपा से “स्तंभन शक्ति’ का वरदान प्राप्त था और उसी के बल पर वह अपने शत्रुओं को पराजित किया करते थे। भगवती का स्वरूप स्तंभनात्मक भी है।

भगवती बगुलामुखी की साधना के दो रूप हैं –

मंत्रपरक तथा तंत्रपरक। साधना का मंत्र निम्न है –

ॐ ह ल्रीं बगलामुखि सर्व दुष्टानां वाचं मुखंपदं।

स्तंभय जिह्वां कीलय बुद्धिं, विनाशय ह ल्रीं ॐ स्वाहा।।

देवी की कृपा से शत्रु की वाणी, मुख कीलित हो जाती है और बुद्धि नष्ट हो जाती है। ऐसी मान्यता है कि प्रत्येक देवी-देवता को प्रसन्न करने हेतु संबंधित गायत्री मंत्र का प्रयोग होता है। “बगुलामुखी’ साधना में भी गायत्री मंत्र के अनेक अनुष्ठान उपलब्ध हैं। मोक्ष की कामना हेतु जप के समय मंत्र के आदि में “ओम्’ का संयोग अपेक्षित है। इसी प्रकार शांति की कामना, सम्मोहन प्रयोग, अभीष्ट विद्या, भूमि-प्राप्ति आदि हेतु क्रमशः आरंभ में ऐं, क्लीं, ऐं, आदि तथा अंत में “लं’ बीज का संयोग करना चाहिए।

देवी के मंत्र की साधना के काल में पीले वस्त्र, पीला ऊनी आसन, पीले पुष्प, पीला चंदन तथा पीली माला के प्रयोग का विधान है। नैवेद्य भी पीला ही होना चाहिए। जप के लिए रुद्राक्ष की माला सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। “श्री बगुलामुखी अनुष्ठान रहस्यम्’ ग्रंथ में इस साधना की अपेक्षित जानकारी उपलब्ध है। मंत्र-जाप से पूर्व हरिद्रा गणपति, बगुला गायत्री के जप का भी विधान है। अंत में “बगुलाहृदयम्’ स्रोत्र के पाठ का भी विधान है।

भगवती बगुलामुखी का एक अन्य नाम पीतांबरा देवी भी है। पीत रंग देवी को अत्यंत प्रिय है। इसी कारण देवी का ध्यान कल्याणकारी है। भगवती पीतांबरा का यंत्र यदि स्वर्ण का हो तो श्रेष्ठ माना जाता है। यंत्र में बिन्दु, त्रिकोण, षट्कोण, अष्टकोण, षोडष दल तथा वृत्तत्रय होते हैं। पीतांबरा देवी का ऐतिहासिक शक्तिपीठ दतिया(म.प्र.) में है। इस शक्तिपीठ में भगवती के दर्शन पर मनोकामनाओं की पूर्ति के अनेक प्रसंग कहने-सुनने में आए हैं। इस पीठ को विश्र्वव्यापी प्रतिष्ठा दिलवाने का श्रेय ब्रह्मलीन स्वामी जी महाराज को दिया जाता है, जो सन् 1929 में धौलपुर (राजस्थान) से दतिया में आकर यहॉं तपस्या लीन हुए थे। कोई भी इनका नाम नहीं जान पाया। यहॉं अश्र्वत्थामा द्वारा स्थापित उस समय के जीर्ण-शीर्ण खंडेश्र्वर मंदिर की बात कही जाती है, जहॉं आज भव्य शक्तिपीठ है। देवी की साधना से शत्रुओं का स्तंभन तो होता ही है। इस साधना से साधक को भोग एवं मोक्ष दोनों की सिद्धि प्राप्त होती है। धनीपुरा, पिहोवा में भी “पीतांबरा पीठ’ की स्थापना की गई है, जहॉं साधना-विधि का संचालन महंत वंशीपुरी एवं भीमपुरी के नेतृत्व में होता है।

– प्रो. मोहन मैत्रेय

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