एक दिन सच और झूठ के बीच बहस छिड़ गयी। दोनों अपने आपको सही ठहराने का प्रयास करने लगे। आखिर निर्णय हुआ कि चुनाव करवाया जाये। सच, लोगों को सद्गुणों, नैतिक मूल्यों व ईमानदारी की दुहाई देते हुए अपने पक्ष में वोट डालने की अपील करने लगा, जबकि झूठ ने दोनों हाथों से शराब व पैसा लुटाया, जहां इससे काम न चला, वहां बल प्रयोग किया और कहीं-कहीं सांप्रदायिकता व जातिवाद का जहर भी फैलाया। यूं एक अच्छी-खासी भीड़ झूठ के पीछे चल पड़ी। चुनाव परिणाम आये तो झूठ ने भारी मतों से विजय प्राप्त कर ली। सच अब रुआंसा-सा खड़ा था। इस अप्रत्याशित सफलता से उत्साहित होकर जहां झूठ ने अगली दफा अन्य सीटों पर भी अपने प्रत्याशी खड़े करने का ऐलान कर दिया। वहीं भीड़तंत्र में मिली इस करारी हार से क्षुब्ध होकर सच ने फिर कभी चुनाव न लड़ने की कसम खा ली।
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