देवदारों से घिरा चंद्रशेखर मंदिर

Chadrashekar Mandirहिमाचल प्रदेश में चंबा नगर के साथ कलकल बहती रावी नदी के पार लगभग बीस किलोमीटर की दूरी पर बसा है साहू या साहो गॉंव। एक ऐतिहासिक और अपनी तरह का एकमात्र मंदिर यहॉं होने के कारण यह गॉंव अत्यंत प्रसिद्ध है। इस पर्वतीय क्षेत्र में यह मंदिर देवदार के विशाल वृक्षों से घिरा हुआ है और इसके सामने एक जलाशयनुमा प्रांगण है। बृहस्पतिवार और रविवार, विशेषकर चैत्र माह में दूर-दूर से लोग ब्रह्म-मुहूर्त में अपने रोगग्रस्त बच्चों को लेकर यहॉं आते हैं और उन्हें यहॉं के प्रांगण में बने चौकोर पत्थर के बीच से गुजारा जाता है। मान्यता है कि इससे बच्चों के हर प्रकार के कष्ट दूर हो जाते हैं।

इस मंदिर के निर्माण से संबंधित शारदा शिलालेख समीप के गॉंव सराहन से प्राप्त हुआ है। इतिहासकार इस मंदिर को भी राजा साहिल वर्मा (920 ई.) द्वारा निर्मित बताते हैं, जिन्होंने चंबा नगर को बसाया था, जबकि शारदा शिलालेख के अनुसार चंद्रशेखर मंदिर का निर्माण सात्यकि नामक स्थानीय राजा ने करवाया था। उनकी एक अत्यंत रूपवती रानी थी, जिसका नाम सोमप्रभा था। सोमप्रभा के सौंदर्य का वर्णन इस शिलालेख में भी एक छंद के रूप में मिलता है।

स्व. कर्ण सागर बाली के कथनानुसार, जिसे चंबा के पंडित ऋषिकेश शर्मा ने लिपिबद्ध किया है, एक समय में निकटस्थ साल नदी के समीप एक साधु कुटिया बनाकर रहा करते थे। वे प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में उठकर नदी में स्नान के लिए जाया करते थे। कुछ दिनों बाद उन्होंने गौर किया कि कोई उनके पहले ही नदी में स्नान कर जाता है, क्योंकि वहॉं नदी के किनारे चट्टान पर भीगे पैरों के निशान स्पष्ट दिखते थे। संन्यासी को आश्र्चर्य हुआ कि कौन ऐसा व्यक्ति है, जो उससे पहले ही स्नान कर जाता है। यह क्रम दो-तीन दिन तक चलता रहा, पर स्नान-चौकी पर पहले पहुँचने के बाद भी वह यह राज़ नहीं जान पा रहे थे। दरअसल, यह सारी रचना भगवान शिव की रची हुई थी। अतः मुनि ने वहॉं ध्यानमग्न होने का निर्णय लिया। ध्यान टूटने पर उन्होंने तीन मूर्तियों को नदी में छलांग लगाते हुए देखा। उचित समय जानकर मुनि ने अलख जगाई। फलस्वरूप एक मूर्ति वहॉं से कैलाश पर्वत भरमौर की ओर चली गयी, जो मणिमहेश के नाम से विख्यात है। दूसरी ने चंद्रगुप्त के लिंग के रूप में नदी में डुबकी लगाई और लुढ़कते हुए चंबा नगरी में घुम्बर ऋषि के आश्रम के समीप रावी और साल नदी के पास ठहर गयी, जबकि तीसरी चंद्रशेखर की वहीं स्नान-चौकी पर शिवलिंग शिला में बदल गयी। इस प्रकार तीनों मूर्तियॉं भगवान शिव की प्रतिमूर्तियॉं थीं, जो शिवलिंग में परिवर्तित हो गयीं।

उसी रात चंबा नरेश को स्वप्न में चंद्रगुप्त ने सारा वृत्तांत कह सुनाया। आदेशानुसार राजा ने चंद्रगुप्त को लक्ष्मी नारायण मंदिर के पास स्थापित किया।

उधर संन्यासी सोच रहे थे कि उनका तप व्यर्थ चला गया। लिंग रूपी चंद्रशेखर ने उन्हें भी स्वप्न में बताया कि वे चिंतित न हों। महेश कैलाश पर्वत पर चले गये हैं, जबकि चंद्रगुप्त नगर में विराजमान हैं। मेरी शिला को नदी के समीप से लाने के लिए गॉंव पंडाह में विंत्रु सति के पास जाओ और उसे मेरी शिला को स्पर्श करने के लिए कहो। उसके स्पर्श से शिला पुष्प के समान हल्की हो जाएगी।

संन्यासी ने अलख जगाया और वित्रुं सती को सारा वृत्तांत कह सुनाया। इस पर वित्रुं सती ने कहा कि उसके पति घर पर नहीं हैं और बालक अग्नि के समीप सो रहा है। दूध चूल्हे पर रखा है और मक्खन पिघलने को है। अतः उसका जाना संभव नहीं है। संन्यासी ने कहा, “”हे देवि, मोह-माया को त्यागो। इन्हें कुछ नहीं होगा।” आश्र्वासन मिलने पर विंत्रु सती ने आकर शिला की परिक्रमा की और उसे स्पर्श किया। इससे वह शिला बिल्कुल हल्की हो गयी। प्रसन्न होकर संन्यासी ने विंत्रु सती से वर मांगने के लिए कहा तो उसने कहा कि उन्होंने जो आश्र्वासन दिया था कि बच्चे, दूध या मक्खन को कुछ नहीं होगा, तो वैसा ही हो। दूसरा वर यह मांगा कि एहलण नाम की पत्ती गाय, भेड़ या बकरी को लगे तो भी उनकी मृत्यु न हो। संन्यासी ने तथास्तु कहा।

ऐसा माना जाता है कि यह वरदान आज तक इस क्षेत्र में कायम है और एलहण नाम की पत्ती खा लेने के बावजूद भी पशुओं को कुछ नहीं होता है। फूल-सी हल्की हो चुकी शिला को साल नदी के किनारे से उठाकर जब लाया जाने लगा तो वह साहो गॉंव में आकर पुनः भारी हो गयी और चंद्रशेखर वहीं निवास कर गये। यह मंदिर अपने शिल्प-वैशिष्टय के कारण भी आकर्षक है और गर्भगृह में स्थित शिवलिंग तांबे का बना हुआ है।

– सुलोचना शर्मा

You must be logged in to post a comment Login