धर्म-निरपेक्षता बनाम पंथ-निरपेक्षता

Dharmaभाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने संविधान में उल्लिखित “धर्म निरपेक्ष’ शब्द पर एतराज जताते हुए कहा है कि एक राजाज्ञा के जरिये इस शब्द के संवैधानिक प्रयोग पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। उन्होंने अपनी आपत्ति जताते हुए कहा है कि संविधान की प्रस्तावना में परिवर्तन कर सेकुलर शब्द नहीं डालना चाहिए था। वैसे भी इसका शाब्दिक अनुवाद किसी भी तौर पर धर्मनिरपेक्षता नहीं हो सकता, इसे पंथ निरपेक्षता कहा जा सकता है। यह बात ग़ौरतलब है कि संविधान की मूल प्रस्तावना में सेकुलर शब्द शामिल नहीं था। यह शब्द पू. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 42वें संविधान संशोधन के जरिये प्रस्तावना में शामिल करवाया। व्यावहारिक रूप में सेकुलरिज्म को अब लोग धर्मनिरपेक्षता शब्द से ही जोड़ने लगे हैं, क्योंकि धर्म की वास्तविक अवधारणा अब लोगों के दिल-दिमाग से उतर चुकी है। फिर भी इस बात को तो भाषा-विज्ञान भी मानता है कि शब्द अपनी इतिहास यात्रा के क्रम में यदा-कदा अपने मूल अर्थ से भटक जाते हैं और उनके साथ ऐसे नये अर्थ जुड़ जाते हैं जो उन्हें अपनी पूर्व की परिभाषा से एकदम भिन्न बना देते हैं।

“धर्म’ भी उसी कोटि का एक शब्द है। भारतीय ऋषि परंपरा ने सार्वदेशिक और सर्वकालिक मनुष्यता के लिए जिन सनातन मूल्यों की खोज और स्थापना की, उन मूल्यों को “धर्म’ शब्द से अभिहित किया गया। संभवतः इसी कारण से जब “हिन्दू’ शब्द भारतीय समाज पर थोपा नहीं गया था, तो इसे “सनातन धर्म’ कह कर पुकारा जाता था। लेकिन यह अवश्य ध्यान देने की बात है कि सामाजिक स्तर पर इसे “कर्मकांड’ के रूप में नहीं, अपितु एक विशिष्ट जीवन शैली के रूप में उतारा गया। और तब सांस्कृतिक चेतना और धर्मचेतना समाज-स्तर पर एकाकी भाव से विद्यमान थी। ग़ौरतलब यह भी है कि “धर्म’ की खोज इस देश में किसी एक परंपरा ने नहीं, अपितु एक ही साथ एक से अधिक परंपराओं ने किया है। मूलतः ये अलग-अलग परंपरायें ही “पंथ’ थीं। “पंथ’ के धरातल पर उनमें गहरे मतभेद भी रहे हैं लेकिन “धर्म’ अथवा जीवन मूल्यों के संबंध में सभी एकमत रही हैं। उनकी धारायें अलग-अलग बहती रही हैं, आज भी बह रही हैं लेकिन इन धाराओं की गोद में प्रवाहित होने वाला जल एक जैसा ही आस्वाद रहा है। हम यह कैसे भूल सकते हैं कि देश की वैदिक परंपरा के ही समांतर श्रमण परंपरा का भी इतिहास जुड़ा है और वह इतिहास ही “धर्म’ का निर्माता है।

हमारे साथ एक विडम्बना यह जुड़ी है कि धर्म के इस स्त्रोत को उसके सही अर्थों में पहचानने के लिए हमारे पास कोई धर्म-इतिहास उपलब्ध नहीं है। जो है, वह बहुत बाद का है और आधा-अधूरा है। परंपराओं का विकास क्रम पुराणों की उलझाव भरी कहानियों के हवाले हो गया है। फिर भी जितना उपलब्ध है उससे यह सत्य तो उजागर होता ही है कि जिस “धर्म’ की बात भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह कह रहे हैं, वह किसी एक परंपरा की उपज नहीं है। अनेक देसी-विदेशी परंपराओं ने संघर्ष और समन्वय की भूमिकाओं से गुजरते हुए इसे विकसित किया है। कहना न होगा कि ये परंपरायें ही पंथ थीं। यह सौभाग्य इस देश की धरती को सनातन तौर पर मिला है कि पंथ-सापेक्षता भी एक सामाजिक-सांस्कृतिक कीमिया के जरिये पंथ निरपेक्षता में ही ढलती रही है। और जब-जब इसकी धारा पंथ निरपेक्षता की ओर मुड़ी है, तब-तब इस धारा का अवसान धर्म में ही हुआ है। यह विलक्षण है कि समांतर पंथ और परंपरायें भी जीवित रही हैं और धर्म भी जीवित रहा है। इस वास्तविकता को समझने के लिए सिर्फ इनकी मतभिन्नता को ही नहीं देखा जाना चाहिए। यह स्वीकार करना होगा कि इनकी भिन्नता एक-दूसरे की विरोधी नहीं अपितु पूरक रही है।

फिर भी दुनिया के हर पंथ-संप्रदाय की तरह “धर्म’ को पौरोहित्यवादी व्यावसायिकता से बचाया नहीं जा सका है। इसी व्यावसायिकता ने सामंतवादी शोषण को भी जन्म दिया है। जीवन को नैसर्गिक रूप से नियंत्रित करने वाले जीवन-मूल्यों को, जिन्हें धर्म की वास्तविक पहचान कहा जा सकता है, लगभग सभी संप्रदायों ने बहिष्कृत कर सतही कर्मकांड की व्यवस्था परोसने का काम किया है। यह विसंगति है कि वास्तविक “धर्म’ की जगह इस व्यवस्था मूलक “धर्म’ को ही स्थानापन्न बनाया गया और इस दृष्टि से पंथ तथा संप्रदाय अपनी अलग-अलग धार्मिक पहचान को ही उजागर करने लगे। यह धर्म कुछ समुदायों, समूहों और समाजों के बीच घृणा, वैमनस्य तथा एक-दूसरे को नीचा दिखा कर अपमानित करने का साधन बन गया। ऐसा नहीं है कि पंथों-संप्रदायों के बीच धर्म उतरा ही नहीं। सभी गुरुओं, समाज सुधारकों और पैग़म्बरों ने मानवधर्म की व्याख्या एक ही की है। मगर यह हैरत की बात है कि इस समानता को खोजने की जगह खोजियों ने असमानताओं को ही खोजने का काम अधिक किया। अगर समानतायें खोज कर प्रकाशित की जातीं तो फिर संप्रदाय-संप्रदाय के बीच की सारी दूरियॉं अपने आप समाप्त हो जातीं।

भारतीय परंपरा ने वास्तविक धर्म को परिभाषित करते हुए कहा है- धैर्य, क्षमा, आत्मनिमंत्रण, अचौर्य, शुचिता, इंद्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दस लक्षण हैं। सबसे बड़ी बात तो धर्म-व्यवहार को निरूपित करते हुए यह कह दी कि तुम किसी दूसरे के साथ कोई ऐसा व्यवहार मत करो, जिसे तुम अपने साथ होना स्वीकार नहीं कर सकते। इस धरती पर विश्र्व मानवता ने अब तक जितने पंथ-संप्रदाय विकसित किये हैं, उनमें कोई एक भी नहीं होगा जो हमारी धर्म की इस मूल अवधारणा से अलग अवधारणा रखता हो। इस स्थिति में भाजपा अध्यक्ष अगर यह कहते हैं कि धर्मनिरपेक्षता संभव ही नहीं है, तो उनकी बात अक्षरशः स्वीकार करनी चाहिए। धर्मनिरपेक्षता अगर संभव होगी तो वह संस्कृति नहीं विकृति ही होगी। लेकिन राजनाथ सिंह अपनी बात सिर्फ एक शब्द “धर्म’ को पकड़ कर कह रहे हैं। इस धर्म को भी व्यवस्थापकों ने कतिपय कर्मकांड और पूजापद्धति के हवाले कर इसे सांप्रदायिक बना दिया है। भाजपा अध्यक्ष को यह बात भी स्वीकार कर लेनी चाहिए।

राजनाथ सिंह का कहना है कि भारत और उसके लोग सदैव से धर्मप्राण रहे हैं, अतएव धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा उनके लिए एक बेमतलब और फालतू शब्द है। वे संविधान की प्रस्तावना में रद्दोबदल कर धर्मनिरपेक्षता शब्द को हटवाना चाहते हैं और उसकी जगह पंथनिरपेक्षता को उल्लिखित करवाना चाहते हैं। वास्तविकता यह है कि संविधान मूलतः अंग्रेजी में लिखा गया, उसका अनुवाद हिन्दी में बहुत बाद में आया। प्रस्तावना में अंग्रेज़ी का “सेकुलर’ शब्द है जिसे अनुवादकों ने “धर्मनिरपेक्ष’ कह दिया। सवाल यह उठता है कि धर्मनिरपेक्षता की जगह अगर संविधान में पंथनिरपेक्षता शब्द डाल भी दिया जाए तो इससे परिस्थितिजन्य परिवर्तन की आशा किस हद तक की जा सकेगी। क्या शब्दों की इस बाजीगरी से बद्धमूल अवधारणाओं को बदला जा सकेगा? क्या यह प्रयास किसी हद तक हमें हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई की बद्धमूल अवधारणा से बाहर निकाल कर कोई नई पहचान दे सकेगा?

यह सही है कि अपनी पारंपरिक सोच के चलते इस देश के हिन्दू-मन में सभी पंथों और संप्रदायों के प्रति समादर का भाव सदा-सर्वदा से रहा है। अगर वह किसी संप्रदाय विशेष की किसी बात को नापसंद करता है, तो भी उसके पीछे कोई आक्रामक भाव कभी नहीं रखता। हमारा इतिहास पृथ्वी पर इस दृष्टि से एक विलक्षण इतिहास रहा है कि जहॉं एक ओर अन्य जगहों पर मत-मतांतरों ने अनवरत संघर्ष की भूमिका रचते हुए घृणा और विद्वेष से अपने इतिहास को लहूलुहान किया है, वहीं हमने अनेक मत-मतांतरों की धाराओं को समेट कर एकाकार कर दिया है। समन्वय की यह भूमिका हमारी सांस्कृतिक पहचान अब भी बनी हुई है। सहिष्णुता का यह भाव ही हमारी विरासत है। अतः इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है कि संविधान में धर्मनिरपेक्षता उल्लिखित किया जाए अथवा पंथ निरपेक्षता। अगर कुछ भी न उल्लिखित किया जाए तो भी कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। बशर्ते हमारी धार्मिकता धर्म के मूल तत्वों के साथ जुड़ी रहे और यह कर्मकांडों और पूजा-पद्धतियों के गुंजलक में बंध कर अपने को सांप्रदायिक न बना ले।

– रामजी सिंह “उदयन’

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