दिशा भ्रमित होते ये खबरिया चैनल

भारत में सेटेलाइट चैनलों का प्रसारण संचार क्रांति के क्षेत्र में अभूतपूर्व घटना थी। इसने लोगों की जीवन-शैली ही बदल कर रख दी। टेलीविजन लोगों के जीवन का अहम हिस्सा बन गया। जहॉं एक ओर दूरदर्शन पर कार्यक्रमों का प्रसारण निश्र्चित समय पर होता था, वहीं दूसरी ओर सेटेलाइट चैनलों पर चौबीस घंटे, सातों दिन देसी-विदेशी कार्यक्रम देखे जा सकते थे। सेटेलाइट चैनल टेलीविजन लोगों के मनोरंजन का केंद्र बन गये। मनोरंजक कार्यक्रमों के साथ समसामयिक एवं समाचार पर आधारित कार्यक्रमों का चलन भी बढ़ा। सेटेलाइट चैनलों के साथ बढ़ती प्रतिस्पर्धा के बीच दूरदर्शन ने भी अपने कार्यक्रमों को नया कलेवर प्रदान किया, मनोरंजनात्मक कार्यक्रमों के साथ-साथ समाचारों के स्वतंत्र प्रसारण पर जोर दिया गया। दूरदर्शन की इन्हीं कोशिशों के बीच आज तक तथा टी.वी. टू-नाइट जैसे कार्यक्रमों का उद्भव हुआ। इन्होंने भारत में टेलीविजन पत्रकारिता को नयी बुलंदियॉं प्रदान कीं। यह थीं खबरें आज तक, इंतजार कीजिये कल तक जैसे जुमले घर-घर में लोकप्रिय हो गये। अब टेलीविजन पत्रकारिता ने व्यावसायिक रूप ले लिया। विनोद दुआ, रजत शर्मा, प्रणव राय, आशुतोष, दीपक चौरसिया, मृणाल सेन तथा दिबांंग इत्यादि टेलीविजन पत्रकार लोगों के आदर्श बन गये। बदलते वक्त के साथ ही टेलीविजन पत्रकारिता अपने शैशवकाल से निकल युवावस्था की दहलीज पर पहुँचने लगी। टेलीविजन पर छोटे-छोटे समाचार या समसामयिक घटनाओं पर आधारित कार्यक्रमों के स्थान पर समाचार चैनल प्रसारण का प्रारंभ हुआ। मीडिया क्षेत्र के खिलाड़ी टी.वी.टुडे समूह ने आज-तक की अपार सफलता से उत्साहित हो, अपने बीस मिनट के कार्यक्रम आज-तक को एक समाचार-चैनल के रूप में प्रस्तुत किया। आरंभ में इसे भी औसतन सफलता ही मिली, लेकिन शीघ्र ही यह एक लोकप्रिय चैनल बन गया।

वर्तमान समय में आज तक, जी न्यूज़, स्टार न्यूज, एनडीटीवी इंडिया, डीडी न्यूज, सहारा समय, इंडिया टीवी, हेड लाइन टुडे, एनडीटीवी 24×7, सहारा समय तथा जैन टीवी इत्यादि समाचार चैनल के अतिरिक्त विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं के चैनलों पर भी न्यूज बुलेटिन प्रसारण किया जा रहा है। समाचार चैनलों के बढ़ते व्यावसायिक हित के चलते इनमें गलाकाट प्रतियोगिता है। बढ़ती प्रतियोगिता और अपने को तीव्र एवं सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की दौड़ में यह अपनी दिशा से भटक से गये हैं। कोई भी चैनल अपनी दशा तलाशता नहीं दिखता। एक-दूसरे के पीछे भागने की कोशिश कर रहे हैं। यदि एक क्रिकेट से संबंधित समाचार दिखा रहा है, तो दूसरा भी इसी प्रकार के समाचार दिखा रहा है। एक अपराध से संबंधित समाचार कार्यक्रम दिखा रहा है तो दूसरा भी उसी प्रकार के कार्यक्रम परोस रहा है। बस, प्रस्तुतीकरण का ढंग थोड़ा अलग होता है। उसमें भी इस बात को लेकर प्रतियोगिता है कि कौन इस प्रकार के समाचारों को अधिक भयंकर और अजीबोगरीब ढंग में प्रस्तुत कर सकता है। हॉं, कुछ चैनलों ने कुछ अलग हट कर प्रस्तुत करने की कोशिश अवश्य की है, पर उनकी यह कोशिश बाबा-भभूत या तंत्र-मंत्र के बीच उलझकर रह गई। जो पत्रकारिता कम और हास्यास्पद अधिक दिखाई देता है। श्रेष्ठता एवं गुणवत्ता जैसे शब्द तो बे-गाने से हो गये हैं। उसे किस दिशा में जाना है सोचने का समय शायद किसी भी समाचार चैनल के पास नहीं। उन्हें किस विचार को लेकर आगे बढ़ना है, इसकी उन्हें फिक्र ही नहीं। पत्रकारिता में उनका उद्देश्य क्या है इसे सोचने की उन्हें फुर्सत नहीं। कैमरा तो बस दौड़ता ही चला जा रहा है। इस बात से बे-खबर कि उसे किस दिशा में जाना है। यह एक विडंबना ही कही जाएगी कि सबकी खबरें लेने वाला कैमरा ही आज अपनी दिशा से बे-खबर हो गया है।

पत्रकारिता मिशन है। सामाजिक चेतना की आवाज है, समाज का दिग्दर्शन है, मानवीय गुणों की पोषक है तथा ज्ञान-विज्ञान तथा जानकारियों का स्रोत है। इन सबसे भी ऊपर पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। इस दृष्टि से पत्रकारिता के उत्तरदायित्व काफी सघन एवं विस्तृत हैं। मिशन को पाने के लिए सर्वस्व दॉंव पर लगाना होता है। लोगों की आवाज कहीं दबी न रह जाए, यह पत्रकारिता के लिए सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण होता है, जिसे पत्रकारिता से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को पूरा करना होता है। पर टीआरपी के इस मकड़जाल में पत्रकारिता की मूलभूत आवश्यकता देश और समाज के प्रति कर्त्तव्यपरायणता, कहीं खो-से गये हैं।

दनादन बढ़ते समाचार चैनलों के जाल में पत्रकारिता में डिजिटल कैमरे ने कलम का स्थान ले लिया है। जहॉं कलम के नीचे होता है सफेद कागज, जो उसे एक नया पैगाम देने का संदेश देता है, कुछ कर गुजरने की प्रेरणा देता है। सफेद कागज पर उकेरती स्याही उस कलम की पहचान होती है। न केवल कलम की पहचान अपितु उस मृतप्राय सफेद कागज की आत्मा भी वही स्याही के उकेरे हुए शब्द होते हैं। कलम एवं सफेद कागज के बीच एक प्रकार का सामंजस्य भी रहता है। इस सामंजस्य में जहॉं कागज की सफेदी होती है, तो वहीं स्याही का स्याहपन भी रहता है। सफेदी पर कालिमा भी है, उस पर कलम का पैनापन भी। इन तीनों के मेल से जहॉं उजाले का भाव प्रलक्षित होता है, तो वहीं स्याही के गहरे रंग अर्थात् अंधेरे को भी रेखांकित करने का प्रयास किया जाता है। लेकिन कैमरे के समक्ष एक चुंधिया देने वाला तीव्र प्रकाश है। इसमें उजला-उजला ही चमकता है। उसके लिए स्याह या कालिमा का कोई स्थान नहीं। उस कलिमा के पीछे छिपे सत्य को जानने की उसे फुर्सत नहीं। अंधेरे के पीछे भागने की उसे कोई फुर्सत नहीं। इसके अतिरिक्त कलम शांत है, उसमें बेबाकी है। उसमें पैनापन है, पर उसमें भटकाव कहीं नहीं। इसके विपरीत कैमरे को अपने आधुनिक होने का अहम है। वह तीव्र तो है, पर साथ ही जल्दबाज भी। सबसे अधिक टीस तो इसे लेकर है कि कैमरा चकाचौंध में ही देखता है। अंधेरे में वह मौन हो जाता है, चेतनाशून्य हो जाता है। उसके लेंस अंधेरे को बींधने में सक्षम नहीं हैं जबकि कलम का पैनापन हर अंधेरे को तार-तार करने का दमखम रखता है। कैमरे को तो वह दिखाना है, जो लोग देखना चाहते हैं।

पैंतीस सालों तक पाकिस्तानी जेलों में यातनाएँ झेल चुके कश्मीर सिंह की वापसी समाचार चैनलों के लिए बड़ा समाचार नहीं, पर ऑस्ट्रेलियाई टीम पर विजय प्राप्त करके भारत लौटने वाली भारतीय टीम की वतन वापसी बड़ी खबर थी। सभी चैनल एक-एक भारतीय खिलाड़ियों के घरों पर धमक गये। उनके विषय में हर छोटी-बड़ी बातों को जानने के लिए लालायित रहे।

दो महीने बाद क्रिकेट टीम के वतनवापसी पर तो कैमरे की चकाचौंध थी, पर पैंतीस वर्षों तक वतन से दूर रहा किसी मॉं का नौनिहाल उस चकाचौंध में कहीं खो-सा गया। उस दिन सुबह से लेकर शाम तक मानो पूरे देश में कुछ ऐसा घटित नहीं हुआ, जिसे समाचार चैनल अपने कवरेज के लायक समझते। उन्हें तो वह रनबांकुरे ही रनबांकुरे नजर आए। क्योंकि उन रनबांकुरों के साथ था दर्शकों की भावनाओं से जुड़ा ग्लैमर। एक ऐसा मायावी जाल जहॉं दर्शक थे और टीआरपी भी, जिसे कोई भी कैमरा खोना नहीं चाहता था। उसमें से अधिक से अधिक पाने की चाहत रखता था। सभी कैमरे अपने को तेज और श्रेष्ठ बनाने में जुटे रहे।

समाचार के इस बाजार में खबरें घटित नहीं होतीं, बनती हैं। यहॉं जो बिकता है वही दिखता है। यह समाचारों की मंडी, जिसमें व्यापारी अपने माल की दुकान सजाये बैठे हैं। जिसकी मांग है उसे बेचो, न बिके तो फेंको। समाचारों की इस मंडी में चैनलों की दुकानें सजी हैं। जिसे कैमरे की चकाचौंध में पैक किया गया है। जहॉं कैमरे में तनिक भी धुंधलापन आया, वहीं दर्शकों का सम्मोहन टूट सकता है। सम्मोहन के टूटने पर वह किसी और दुकान पर जा सकता है और हो सकता है उस दुकान पर कुछ और जायकेदार मिले, जिसके कारण वह पुनः लौटकर इस दुकान पर न आए।

कैमरे की चकाचौंध ने किसी भी राज ठाकरे को चंद गुंडों के साथ उत्पात मचा कर आसानी से अपनी राजनीति चमकाने अवसर प्रदान कर दिया। कैमरे ने तो कुछ लोगों का उत्पात देखा, लोगों को पीटते देखा। कैमरों को मसाला मिला और राज को प्रचार। एक ने दूसरे से अपने हित साथे। एक तरफ मसाला, एक तरफ प्रचार। चैनल भी चले और राज और राज का गुंडा राज भी जिसने उन्हें मराठी माणुष के बीच हीरो बना दिया। इस बीच चैनल भी बन बैठे लोकतंत्र के रक्षक। उत्पात मचाने वाले कितने लोग थे, यह किसी ने नहीं देखा। मुंबई में उत्तर-भारतीय एवं मराठी लोगों के बीच स्थापित प्रेम, भाईचारे को कैमरे ने नहीं देखा। यदि कैमरा यह देखता तो खबर से मसाला कम हो जाता और मसाला कम होने पर दर्शकों को जायका कम हो जाता। जायका कम हो जाता तो कौन देखता चैनल? और कैसे बढ़ती टीआरपी!

सरकार अपने पॉंच-साल के काल पूरा करने के समीप है। लोकलुभावन बजट पेश किया जा चुका है। यह समय पत्रकारिता के लिए सर्वाधिक उत्तरदायित्वपूर्ण है जिसमें आधारभूत मुद्दों को उठा कर जनता के समक्ष लाया जा सकता है, जिससे वह सरकार के कार्य का सटीक मूल्यांकन कर सकें। परन्तु इसके विपरीत समाचार चैनल धोनी के बाइक, गंभीर के हेयर स्टाइल, आईपीएल से जुड़े समाचार कवरेज कर रहे हैं। जिससे जनता का ध्यान आधारभूत मुद्दों से हट रहा है। जोकि कदापि ठीक नहीं माना जाएगा। राजनैतिक क्षेत्र के साथ खेल के क्षेत्र में यह समय एक चुनौतीपूर्ण है। कभी भारत की शान रहे राष्ट्रीय खेल हॉकी की टीम ओलंपिक में भी नहीं पहुँच पाई। साथ ही अगस्त में ओलम्पिक खेल है। ओलंपिक के लिए भारत की तैयारी कैसी है इसकी कवरेज को भी कोई तवज्जो नहीं दी जा रही।

वस्तुतः टेलीविजन ने पत्रकारिता को मिशन के स्थान पर बाजारवाद से ग्रस्त बना दिया है।

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