जिस बात से हम बिच्छू के काटे जाने की भांति बिदकते हैं, वह है यौन-साहित्य। यौन-साहित्य का हिन्दी अथवा क्षेत्रीय भाषाओं में रुझान एक ऐसी समस्या है, जिस पर हमने कभी भी ध्यान नहीं दिया। यौन-साहित्य की इस रिक्तता को अपने ढंग से भरने का प्रयास जिन प्रकाशनों या लेखकों ने किया है, वे इतने स्तरीय नहीं हैं कि उन्हें आदर्श माना जाए।
अधकचरे ज्ञान के फलस्वरूप विशेषज्ञ बन बैठे कथित सेक्सोलॉजिस्ट द्वारा लिखी गई स्तरहीन एवं बाजारू पुस्तकों से आज बाजार पटा पड़ा है। उसी दुकान से पिता चोरी-छुपे पुस्तक खरीदता है, उसी जगह से बेटा खरीदता है। यह हमारी संस्कृति की एक प्रथा है कि हमारे यहां आज भी यौन-साहित्य पढ़ा जाना अच्छा नहीं समझा जाता और यह सही भी है, क्योंकि यौन-शिक्षा के नाम पर जो साहित्य उपलब्ध है, वह इतना भड़काने वाला है कि यदि आपमें थोड़ी-सी भी लज्जा शेष है तो ऐसी पुस्तक आप अपने परिवार में नहीं ले जा सकते। क्या सचमुच में यौन-साहित्य वर्जित माना जाना चाहिए? यदि इसी तरीके का फूहड़ एवं आधारहीन यौन-साहित्य उपलब्ध होता रहा, तो निःसंदेह वह घर-परिवार के लायक नहीं रहेगा, उसे आप किसी भी हालत में सिर उठाकर अपने परिवार में नहीं ले जा सकते, फिर क्या हम यह मान लें कि यौन-साहित्य का हमारे जीवन में कोई महत्व नहीं है? यदि ऐसा होता तो शायद कामसूत्र या कोक शास्त्र न लिखा जाता।
सच्चाई तो यह है कि यौनाचार अथवा कामसंबंध जीवन का अनिवार्य अंग है- जहां भी इसकी उपेक्षा की जाती रही है, वहां वह किसी न किसी विकृति के रूप में विषाक्त फोड़े के रूप में फूटता रहा है। चाहे वह मठों में होने वाले व्याभिचार के रूप में या चाहे धर्म के नाम पर मंदिरों में प्रचलित देवदासी प्रथा के रूप में हो। अतः कामेच्छा को नकारना जीवन की स्वाभाविकता को ही नकारना है, जो किसी भी रूप में उचित नहीं होगा।
फिर क्या करें? यौन-शिक्षा अथवा साहित्य के रूप में बाजार में प्रचलित गलत-सही जानकारी देने वाले उस हानिकारक बाजारू साहित्य पर ही निर्भर रहा जाए या आगे बढ़कर विद्वान एवं विशेषज्ञ अपने शोध कार्यों से परिलक्षित उचित यौन-साहित्य लिखें और हिन्दी तथा क्षेत्रीय भाषाओं में उसे सर्वसुलभ कराया जाए। यह आज समय की मांग है कि हमारी युवा होती पीढ़ी सेक्स के विषय में जान सके। जो वह जानना चाहती है, वह सब कुछ वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित होना चाहिए। भ्रांतिमूलक, सस्ते साहित्य के चंगुल में फंसकर स्वयं को गलत संगत में फंसा देने वाले नव-युवाओं को बचाने का यही एकमात्र उपाय है।
प्राचीन काल में हमारी पौराणिक गाथाओं तथा धर्म में काम-ाीड़ा को अथवा सेक्स को सहज स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत किया गया। वहां कोई भ्रांति या पर्दा नहीं था। कामदेव को भी अन्य देवों की भांति पूजा गया। कोकशास्त्र के प्रणेता विद्वान कोक पंडित को पर्याप्त सम्मान मिला। मेघदूत, ऋतुसंहार, मालविकाग्निमित्र जैसे संस्कृत के ग्रंथों एवं महाकाव्यों में श्रृंगार-रस अर्थात काम का विस्तार से वर्णन है, पर वह सब कुछ सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति को पुष्ट एवं विकसित करता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में यौन-शिक्षा का अभाव नहीं रहा है। यही नहीं मंदिरों, गुफाओं तथा महलों में अनेक प्रकार की सैकड़ों कलात्मक मूर्तियों द्वारा भी हमारे पूर्वजों ने काम-ाीड़ाओं की सही प्रस्तुति की है, इनमें उन्होंने कहीं भी कामेच्छा का शोषण नहीं किया। उन्होंने तो उचित आहार, नियम-संयम के साथ इसे प्रस्तुत भी किया है।
आज जो साहित्य हमारे युवा चोरी-छिपे पढ़कर सेक्स की शिक्षा स्वयं ले रहे हैं, वह शिक्षा, शिक्षा न होकर अपघात है। वह हमारी नई पीढ़ी को चारित्रिक पतन के गर्त में गिराने में सहायक बन रहा है। इस तरह के साहित्य को पढ़कर युवा एवं किशोर पथभ्रष्ट होकर व्यर्थ की कामेच्छाओं में स्वयं के स्वास्थ्य एवं भविष्य को बर्बाद करते हैं। इसलिए सरकारी संस्थानों को सही जानकारों, विद्वानों तथा विशेषज्ञों द्वारा प्राचीन एवं नवीनतम उपलब्ध ग्रंथों एवं ज्ञान को विश्लेषित कर उचित पुस्तकें प्रकाशित कर उचित मूल्य पर बाजार में लानी चाहिए। वरना हमारा युवा वर्ग इस तथाकथित यौन-साहित्य के लिए लुटता व पथभ्रष्ट होता रहेगा। परिणाम निकलेगा गलत संगत, गलत आदत तथा गंदी बीमारियां। अपनी युवाशक्ति को बचाने की खातिर हमें सही मनोरंजक एवं स्वस्थ संयमयुक्त व्यावहारिक यौन-साहित्य को आज स्वीकारना ही होगा वरना देरी हो जाएगी।
– जोगेश्र्वरी संधीर
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