जैसा आचार, वैसा विचार जैसा लक्ष्य, वैसे लक्षण

वैज्ञानिकों ने विद्युत, चुम्बकत्व, प्रकाश, ध्वनि और उष्मा इन शक्तियों को जान कर बड़े-बड़े आविष्कार किये हैं। इससे उन्होंने समाज को बहुत प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध कराई हैं। पदार्थ जगत में अणु के विस्फोट से भी एक बहुत बड़ी शक्ति को हासिल किया गया है। इन शक्तियों को अपने नियंत्रण में लाकर इनके द्वारा अद्भुत मशीनों एवं साधनों का निर्माण करने के फलस्वरूप आज का मानव, विज्ञान के चमत्कारों से बहुत ही प्रभावित है।

परन्तु ध्यान देने के योग्य बात यह है कि इन शक्तियों को भी अपने वश में करके इनके द्वारा कार्य करने वाली शक्ति तो विचार-शक्ति ही है।

विचार अथवा चिन्तन एक बहुत ही बड़ी शक्ति है। लोगों ने आज जड़ अथवा भौतिक शक्तियों के महत्व को तो समझा और माना है, लेकिन विचार-शक्ति के महत्व अथवा मूल्य को पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं।

विचार न केवल भौतिक, रासायनिक, प्राकृतिक और जैविक शक्तियों को जान कर और उन्हें अपने नियंत्रण में करके उन्हें इच्छा तथा आवश्यकता के अनुसार कार्य में जुटाने में समर्थ होते हैं बल्कि समाज में बड़ी-बड़ी आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक क्रान्तियों को भी जन्म देने में समर्थ हैं। बड़ी-बड़ी योजनाएं बना कर उन्हें क्रियान्वित करने वाली शक्ति भी विचार ही है। वास्तव में मनुष्य के समस्त कर्मों की प्रेरक-शक्ति यही है।

मनुष्य के चरित्र की नींव

यदि ध्यान से देखा जाये तो अनाचार, अत्याचार, भ्रष्टाचार, दुराचार इत्यादि किसी कुविचार अथवा घृणित विचार ही की अभिव्यक्ति मात्र हैं। इसी प्रकार सदाचार, सद्व्यवहार, श्रेष्ठाचार इत्यादि की नींव भी मनुष्य के शुद्ध अथवा नैतिक विचारों से ही बनी है। किसी ने ठीक ही कहा है कि मनुष्य के जैसे विचार होते हैं, वैसा ही वह बन जाता है। मनुष्य की मान्यताएं, उसके विश्र्वास, उसके दृष्टिकोण, उसके संकल्प, उसकी विचारधारा ही उसे किन्हीं कर्मों की ओर प्रेरित करती है और उनको देखकर ही हम कहते हैं कि अमुक व्यक्ति अच्छा है या बुरा है। इन्हीं विचारों के आधार पर ही मनुष्य “सतोगुणी’, “रजोगुणी’ और “तमोगुणी’ कहलाते हैं। सतोगुणी मनुष्य वह होता है, जो अपने सुख के अतिरिक्त दूसरों की भलाई का भी विचार करता है। वह स्वयं भी शान्ति में रहता है और दूसरों को भी सुख-शान्ति से जीने में सहयोग देता है। रजोगुणी मनुष्य वह है, जो केवल अपनी ही सुख-शान्ति का विचार करता है। वह ऐन्द्रिय सुख अथवा पदार्थों से प्राप्त होने वाले सुख को अधिक महत्व देता है। उसके मन में नैतिक मूल्य स्थिरता से नहीं टिक पाते। वह आत्मिक अथवा शाश्र्वत सुख की प्राप्ति का अनुभवी नहीं होता है। तमोगुणी मनुष्य तो अपने सुख के लिए दूसरों के सुख को भी छीनने में संकोच नहीं करता। उसका विचार केवल अपने ही लाभ पर केन्द्रित रहता है।

जैसा लक्ष्य वैसे लक्षण

संसार में बहुत से लोग ऐसे हैं, जिनका लक्ष्य खाना, पीना और मौज उड़ाना ही है। वे शरीर से अलग “आत्मा’ नाम की शाश्र्वत सत्ता को नहीं मानते। वे पुनर्जन्म और कर्म के अटल सिद्धान्त में भी आस्था नहीं रखते। उनका मत होता है कि जब तक यह शरीर है, तब तक ही सब कुछ है। अतः उनका लक्ष्य भी यहीं तक सीमित रहता है और उनमें लक्षण भी तदानुसार ही होते हैं। कोई अभिनेता बनना चाहता है तो कोई कुछ और इससे उसके क्रिया-कलाप, हावभाव, वार्तालाप उसी प्रकार ही होने लगते हैं। कोई सेठ बनना चाहता है तो उसकी बुद्धि उसी ओर चलने लगती है। वास्तव में देखा जाये तो यह सब जीविकोपार्जन के साधन हैं और ये लक्ष्य जीवन के अन्तिम लक्ष्य नहीं हैं। मनुष्य से देवता बनना, सद्गुणों का विकास करना, चारित्रिक रूप से महान बनना ही मनुष्य का ध्येय होना चाहिए। इस ध्येय के फलस्वरूप मनुष्य को यह ध्यान रहेगा कि मुझे अच्छे कर्म करने हैं। इस लक्ष्य से उसमें दैवी लक्षण आएँगे और उसका चरित्र महान होगा।

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