जेहाद के खिलाफ जेहाद

Jehadआज से पॉंच-सात साल पहले प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान डॉ. रफीक जकारिया ने बड़ी साफगोई से यह कहा था कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं है, लेकिन हम इससे भी इन्कार नहीं कर सकते कि हर आतंकवादी मुसलमान है। दरअसल एक पूरी की पूरी कौम कुछ सिरफिरे आतंकी संगठनों की जेहाद की नई परिभाषा और इसकी अमानवीय तथा नृशंस गतिविधियों के चलते संदेह के घेरे में आ गई है। अलावा इसके सच्चाई यह भी है कि मजहबी नहीं, राजनीतिक कारणों से बनने वाली इस परिभाषा ने जितना नुकसान ग़ैर मजहबी लोगों का नहीं किया, उससे कहीं ज्यादा कौम और मज़हब का किया। पश्र्चिमी मीडिया ने इसे बेलाग इस्लामिक आतंकवाद कह कर प्रचारित भी करना शुरू कर दिया और बड़ी बारीकी से इसका विश्र्लेषण “सभ्यताओं का संघर्ष’ नाम देकर किया जाने लगा। फलतः कुछ तो पश्र्चिमी मीडिया के प्रचार के चलते और कुछ आतंकी संगठनों की जेहादी कार्यवायियों के चलते, एक कौम को कशमकश के दोराहे पर खड़े होने को मजबूर होना पड़ा। मिली-जुली आबादी वाले देशों, जिसका एक उदाहरण भारत भी है, के भीतर मुसलमान बिल्कुल अपने को अलग-थलग महसूस करने का भारी दबाव झेलने की स्थिति में आ गये हैं। इतना ही नहीं इसकी प्रतिक्रिया दूसरे सिरे पर भी साफ दिखाई देने लगी है जब एक सांप्रदायिकता के समांतर दूसरी सांप्रदायिकता ने भी बड़ी तेज़ी से आकार ग्रहण करना शुरू कर दिया है।

भारत जैसे देश में आतंकवाद के बढ़ते दायरे और प्रभाव ने मुसलमानों को किसी निर्णायक स्थिति से गुजरने को अब विवश करना शुरू कर दिया है। अगर वे चुप्पी साधे पड़े रहते तो उनके प्रति संदेह और घना तथा परिपक्व होता। इसके अलावा समांतर सांप्रदायिकता को उन पर लगातार हमले जारी रखने का अवसर भी मिलता। यह तो स्वीकार करना ही होगा कि इस्लाम के खिलाफ पश्र्चिमी दुष्प्रचार से आहत होने के बावजूद खुलेआम कोई भी मुसलमान आतंकवादियों के पक्ष में खड़ा नहीं हो सकता है। वह इस “सभ्यताओं का संघर्ष’ की पश्र्चिमी अवधारणा के खिलाफ ज़रूर है और अमेरिका द्वारा इराक और अफगानिस्तान को तबाही के कगार पर खड़ा करना उसे सख्त नापसंद है। लेकिन अपनी चुप्पियों के बावज़ूद वह न ओसामा बिन लादेन और उसके अलकायदा के पक्ष में है और न ही लश्करे-तैयबा और जैशे-मुहम्मद के उन कायराना हमलों के पक्ष में है जिसमें बेकसूर लोगों का खून बहता है। फिर अब तो उसे साफ दिखायी देने लगा है कि आतंकवाद का कोई सिरा मज़हब और उसके उसूलों से नहीं जुड़ता है। आतंकवाद की राजनीति के एक कोण पर अगर अक्षरधाम, संकटमोचन तथा अयोध्या की खूंरेजियॉं खड़ी हैं, तो दूसरे कोण पर मक्का-मस्जिद, मालेगॉंव, अजमेर शरीफ़ तथा समझौता एक्सप्रेस में हुई बम-ब्लास्ट की वारदातें भी हैं। कहने को तो इसे मजहबी कट्टरतावाद की उपज बताया गया लेकिन इसकी तलवार की धार ने हिन्दू-मुसलमान को समान रूप से चीरा है। सच यह भी है कि आतंकवादियों ने मुसलमान को मारा या हिन्दू को, लेकिन मारा है “जेहाद’ के ही नाम पर।

पूरे इस्लामिक जगत में अपनी हिंसक गतिविधियों को जायज ठहराने और ग्लैमराइज करने की दृष्टि से आतंकवादियों ने पवित्र कुरान से एक शब्द ढूंढ निकाला था। वह शब्द है-ज़ेहाद। उनकी सारी पैशाचिक क्रूरता इस एक शब्द की खोल में बन्द कर उछाली गई है। मकसद सिर्फ इतना कि वे यह साबित कर सकें कि उनका मकसद पवित्र है और वे हत्यारे नहीं मुज़ाहिदीन हैं। यह ग़ौरतलब बात है कि इस मकसद की रचना में दीनो-मजहब का कोई हाथ नहीं है, इसकी रचनाकार शुद्ध रूप से सियासत है। वह सियासत जो अपनी कामयाबी को पुख्ता बनाने की गरज़ से मज़हबी धर्मगुरुओं को हमेशा से अपना ज़रखरीद गुलाम बनाती आई है। और ये मज़हबी धर्मगुरु पवित्र ग्रंथों के शब्दों की वास्तविक व्याख्याओं को दरकिनार कर उसमें नये सियासी अर्थों का समावेश अक्सर किया करते हैं। उन्हीं शब्दों में एक शब्द है “जेहाद’। वर्तमान में यह शब्द एक ऐसा परचम बन गया है जिसे लेकर आतंकवादी अपना हिंसक अभियान चला रहे हैं। वे औरतों-बच्चों और बेकसूरों को अपने बम-ब्लास्ट का निशाना बनाते हैं और घोषणा करते हैं कि वे जेहाद कर रहे हैं। जबकि जेहाद की बाबत पवित्र कुरान का स्पष्ट कहना है, “वे लोग जिन्होंने हमारे मार्ग में जेहाद किया उन्हें हम ज़रूर अपना मार्ग दिखायेंगे। निःसंदेह ईश्र्वर उत्तम कार्य करने वालों के साथ है (29:69)।’ वहीं हदीस इस बारे में कहती है, “सबसे बड़ा जेहाद अपने मन पर नियंत्रण पाना हैं।’

इस दृष्टि से यह बहुत आसानी से समझा जा सकता है कि इस पवित्र शब्द की पवित्रता को कैसी साज़िश के तहत नष्ट किया गया है और शान्ति की पक्षधरता की वकालत करने वाले एक पवित्र मजहब को असहिष्णु और युद्धपोषक सिद्ध करने की कोशिश अंजाम दी गई है। इस कोशिश के पीछे मजहबी लोग भी हैं और ग़ैर मजहबी भी हैं। लेकिन अब वह वक्त आ गया है जब इस कौम के समझदार लोगों को आगे बढ़ कर इस नकली जेहाद के खिलाफ असली जेहाद को सिर्फ खड़ा ही नहीं करना होगा, बल्कि असली जेहाद की पहचान भी बनानी होगी। इसके अलावा उन भ्रांतियों का भी निराकरण करना होगा जो ग़ैर-इस्लामी लोगों के मन में दिन प्रतिदिन पैठ बनाती जा रही है। खुशी की बात है कि इसकी शुरुआत हो चुकी है और भारतीय मुसलमान आतंकवाद के विरोध में अब बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरने लगे हैं। जयपुर में बम-ब्लास्ट की घटना के बाद हिन्दुस्तान के लगभग हर शहर में बड़ी संख्या में मुसलमानों ने आतंकवादियों की घिनौनी हरकतों की अपने प्रदर्शनों में पुरज़ोर मुखालफत की और इसे ग़ैर इस्लामी करार दिया।

कुछ दिन पहले इस्लामी शिक्षा के अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र दारुल-उलूम देवबंद में उलेमाओं और इस्लामिक विद्वानों के एक बड़े सम्मेलन में, जिसमें मुसलमानों के सभी फिरकों की शिरकत थी, आतंकवाद के खिलाफ प्रस्ताव पारित कर आतंकवादियों द्वारा ज़ेहाद शब्द के इस्तेमाल को ग़ैर वाज़िब बताया गया और इसका प्रचार-प्रसार आम मुसलमानों के बीच करने की ज़रूरत को भी रेखांकित किया गया। पिछली 31 मई को दिल्ली के रामलीला मैदान में दारुल उलूम और जमीअते-उलमाये हिन्द के तत्वावधान में एक बड़ी सभा का आयोजन कर आतंकवाद को ग़ैर इस्लामिक सिद्ध करते हुए एक फतवा भी जारी किया गया। फतवे में स्पष्ट किया गया कि जिस जेहाद शब्द का इस्तेमाल कर आतंकवादी स्त्रियों, बच्चों और बेकसूरों की हत्या कर रहे हैं उसे इस्लाम सबसे बड़ा पाप मानता है। उलेमाओं ने इस बात को भी इंगित किया कि चन्द गुमराह आतंकवादियों की करतूतें पूरी कौम को बदनाम कर रही हैं, अतः हर मुसलमान का फर्ज बनता है कि वह आतंकवादियों के “जेहाद’ से भ्रमित न हो और इसको ग़ैर इस्लामी मान कर इसका पुरजोर विरोध करे।

आतंकवाद के खिलाफ भारतीय मुसलमानों ने जो आवाज़ बुलंद की है वह पूरे दक्षिण एशिया में गूंजेगी, ऐसा विश्र्वास प्रकट किया है जमीअते-उलेमाये हिन्द के महासचिव और सांसद महमूद मदनी ने। उनका जारी किये गये फतवे के संबंध में स्पष्ट कहना है कि ़कुराने-पाक की आयतों के हवाले से साफ कर दिया गया है कि अगर कोई संगठन इस्लामी आदर्शों का उल्लंघन करते हुए आतंकी गतिविधियों में लिप्त है तो इसके लिए इस्लाम कत्तई जिम्मेदार नहीं है। इस्लाम आतंकवाद को मिटाने के लिए है, न कि इसे बढ़ावा देने के लिए। उन्होंने यह भी कहा है कि अब आम मुसलमानों को आगे आकर आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष करना होगा। हर मुसलमान को यह समझ लेना होगा कि इस्लाम में आतंकवाद के लिए कोई जगह नहीं है और निर्दोष लोगों की हत्या इस्लाम के उसूलों के खिलाफ है। मदनी यह मानते हैं कि इस अभियान से आतंकवाद की जड़ें तो कमजोर होंगी ही, आतंकवाद की आड़ में मुसलमानों पर हमलावर होने वाले लोगों की साजिशें भी नाकाम होंगी और आपसी भाईचारा तथा अमन कायम करने में भी खासी मदद मिलेगी।

मुसलमानों की ओर से की गई इस पहल का सकारात्मक प्रभाव स्पष्ट देखने में आ रहा है। आरएसएस के सरसंघ चालक के.एस. सुदर्शन इस प्रस्ताव पर बधाई देने स्वयं चल कर जमीअत के दफ्तर पहुँचे और आतंकवाद के संदर्भ में मुसलमान कौम को अप्रत्यक्ष निशाने पर लेने वाली भाजपा ने भी अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में बाकायदा प्रस्ताव पास कर इस प्रयास की सराहना की। वैसे भी देखा जाए तो जेहाद के खिलाफ जेहाद की यह पहल न सिर्फ मुसलमानों के ह़क में है बल्कि यह देशहित में भी है। मुसलमानों की ओर से इस पहल की देश को ज़रूरत थी। इसका सबसे बड़ा फायदा तो यही होगा कि सीमा पार से प्रायोजित होने वाले आतंकवाद को देश में पॉंव रखने के लिए जमीन मिलनी मुश्किल हो जाएगी। उनकी आतंकी वारदातें सफल हो जाने के पीछे का सबसे बड़ा रहस्य ही यही है कि वे कौमियत के नाम पर ग़ुमराह मुसलमानों के बीच अपनी पैठ बना लेते हैं। अगर आम मुसलमान इस फतवे से प्रभावित होकर उनकी पैठ को नाकामयाब बनाने पर उतारू हो जाए तो कम से कम भारत की जमीन से तो आतंकवाद का खात्मा हो ही जाएगा। अगर ऐसा संभव होता है तो इस देश का मुसलमान ज़रूर अपनी मिट्टी के साथ न्याय करेगा। बिस्मिल्लाह तो हो चुका है, इरादे नेक होंगे तो ़खुदा ज़रूर अपने बन्दों को कामयाबी बख्शेगा।

– रामजी सिंह “उदयन’

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