कांचीपुरम दक्षिण भारत की काशी

kanchipuramतमिलनाडु में स्थित कांचीपुरम मोक्षदायिनी सप्तपुरियों में से एक है। इन सात पुरियों में साढ़े तीन पुरियां विष्णु कीं और इतनी ही शिवजी की हैं। कांची आधी विष्णु की और आधी शिव की है। सप्त कांची के दो भाग हैं- शिवकांची तथा विष्णुकांची। कांचीपुरम को दक्षिण भारत की काशी कहा जाता है। कांचीपुरम इक्यावन शक्तिपीठों में से एक है। कहा जाता है कि यहां सती का कंकाल गिरा था। संभवतः कामाक्षी मंदिर ही यहॉं का शक्तिपीठ है।

दक्षिण रेलवे के चेन्नई एगमोर-रामेश्र्वरम रेलमार्ग पर चेन्नई से लगभग छप्पन किलोमीटर की दूरी पर चेंगलपट्ट स्टेशन है। यहॉं से एक लाइन अखत्कोणम् तक जाती है। इस रेल लाइन पर चेंगलपट्ट से लगभग पैंतीस किलोमीटर की दूरी पर कांचीपुरम स्टेशन है। इस नगर के एक ओर शिवकांची तथा दूसरी ओर विष्णुकांची है। नगर का अधिकांश भाग बस-स्टैंड, रेलवे स्टेशन एवं प्रमुख बाजार शिवकांची में है। विष्णुकांची नगर का छोटा भाग है। शिवकांची के बस-स्टैंड से लगभग चार किलोमीटर की दूरी पर विष्णुकांची का विष्णु मंदिर है।

शिवकांची में बस-स्टैंड के समीप ही सर्वतीर्थ सरोवर है। इसमें स्नान करने का विशेष महत्त्व है। सरोवर के मध्य में एक छोटा-सा मंदिर है, जिसके चारों ओर कई मंदिर हैं, उनमें प्रमुख मंदिर काशी विश्र्वनाथ का है। शिवकांची में स्थित एकाम्रेश्र्वर प्रमुख मंदिर है। इस मंदिर के दो बड़े घेरे हैं। पूर्व के घेरे में कक्षाएँ हैं। पहली कक्षा का गोपुर दस मंजिला तथा एक सौ अट्ठासी फीट ऊँचा है। इस द्वार के दोनों ओर स्वामी कार्तिकेय तथा गणेश के मंदिर हैंै। दूसरे कक्ष में शिव-गंगा सरोवर है, जहां ज्येष्ठ मास में विशाल उत्सव होता है। इसी घेरे से जुड़ा हुआ मुख्य मंदिर का प्रवेश-द्वार है। तीन द्वारों के अंदर श्रीएकाम्रेश्र्वर शिवलिंग है, जो श्याम वर्ण की बालुका से निर्मित है।

दक्षिण के पंचतत्व लिंगों में एकाम्रेश्र्वर भूतत्वलिंग है। इस संबंध में कुछ मतभेद हैं। कुछ लोग एकाम्रेश्र्वर लिंग को भू-तत्व लिंग मानते हैं तो कुछ लोग तिरूवारूर के त्यागराज लिंग को भू-तत्व लिंग मानते हैं। एकाम्रेश्र्वर पर जल नहीं चढ़ाया जाता है। यहॉं चमेली का सुगंधित तेल चढ़ता है। लिंग के पीछे श्री गौरी शंकर की युगल मूर्ति है। मंदिर के पीछे एक अति प्राचीन आम का वृक्ष है। वृक्ष के नीचे छोटे मंदिर में तपस्या में लीन पार्वती की मूर्ति है।

कहा जाता है कि एक बार पार्वती ने महान अंधकार उत्पन्न करके त्रिलोकों को त्रस्त कर दिया था। इस पर शिव ने रुष्ट होकर उन्हें श्राप दिया। इसी आम के वृक्ष के नीचे पार्वती ने तप करके श्राप से मुक्ति पायी थी। तब भगवान शंकर ने प्रकट होकर उन्हें अपनाया। एकाम्रेश्र्वर लिंग पार्वती द्वारा बनाया बालूका निर्मित लिंग है, जिसकी वह पूजा करती थीं। शिवजी ने प्रकट होकर कहा था कि वह यहॉं अपने ज्योतिर्मय रूप को त्यागकर स्थावर लिंग में परिणित होकर रहेंगे।

एकाम्रेश्र्वर मंदिर की दूसरी परिामा के पूर्व वाले गोपुर के पास श्री नटराज तथा नंदी की सुनहरी मूर्तियां हैं। इसी घेरे में नवग्रह आदि अनेक देवविग्रह स्थापित हैं।

शिवकांची में स्थित कामाक्षी देवी मंदिर इक्यावन शक्ति पीठों में से एक है। मंदिर में कामाक्षी देवी की आकर्षक प्रतिमा है। यहीं अन्नपूर्णा तथा शारदा देवी के मंदिर भी हैं। कामाक्षी देवी मंदिर आदिशंकराचार्य द्वारा बनवाया गया था। कहा जाता है कि कांची में कामाक्षी, मदुरा में मीनाक्षी और काशी में विशालाक्षी विराजमान हैं। मीनाक्षी और विशालक्षी विवाहिता हैं।

कामाक्षी देवी के समीप ही वामन भगवान का मंदिर है। इस मंदिर में भगवान त्रिविाम की पांच मीटर ऊँची विशाल मूर्ति है। भगवान का एक चरण ऊपर के लोकों को नापते हुए ऊपर उठा हुआ है तथा दूसरा चरण राजा बलि के मस्तक पर है। मंदिर के पुजारी एक बांस में बहुत मोटी बत्ती अर्थात् मशाल जलाकर भगवान के श्रीमुख का दर्शन कराते हैं। इसी मंदिर के समीप ही सुब्रह्मण्य मंदिर है, जिसमें स्वामी कार्तिकेय की भव्य मूर्ति प्रतिष्ठित है।

शिवकांची में कैलाशनाथ शिव मंदिर दर्शनीय है। इस मंदिर का शिवलिंग अति सुन्दर एवं प्रभावोत्पादक है। मंदिर के चारों ओर की दीवारों पर विभिन्न प्रकार की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं, जो शिल्पकला की दृष्टि से अद्वितीय हैं।

शिवकांची में श्री वैकुंठ पेरूमल मंदिर बस्ती के मध्य में स्थित है। इस मंदिर में भगवान विष्णु का श्रीविग्रह है। मंदिर की परिामा के मार्ग में भित्तियों पर विविध प्रकार की कलात्मक मूर्तियां हैैं, जो श्रृंगार, युद्घ और नृत्य-गान की मुद्रा में हैं। विष्णुकांची में स्थित श्रीवरदराज स्वामी का मंदिर प्रमुख है। इस मंदिर का गोपुर ग्यारह मंजिल का है। भगवान का मंदिर तीन घेरों के अंदर है। पश्र्चिम के गोपुर से प्रवेश करने पर शतस्तम्भ मंडप मिलता है, जिसकी शिल्पकारी दर्शनीय है। सभी स्तम्भ शिकार का पीछा करते हुए घुड़सवारों की आकृति के बने हैं। मंडप के मध्य में सिंहासन है, जिस पर उत्सव के समय भगवान आकर विराजते हैं। मंडप के पीछे कोटितीर्थ सरोवर है, जिसके बीच में मंडप है। यहॉं भगवान वराह आदि के मंदिर हैं। कहा जाता है कि इस सरोवर में भगवान की शेषशायी मूर्ति जल में डूबी रहती है, जिसे बीस वर्षों में केवल एक बार जल से बाहर निकाल कर विशाल उत्सव मनाया जाता है। कोटितीर्थ सरोवर के आगे गरुड़ स्तंभ है। इसके दक्षिण में श्री रामानुजाचार्य की प्रतिमा है। रामानुजाचार्य की प्रधान पीठों में एक पीठ यहां है। इसके पीछे लक्ष्मी-नारायण की भव्य प्रतिमाएँ हैं। ऊपर वाली मंजिल में भगवान विष्णु की आकर्षक प्रतिमा है। इसी घेरे में भगवान के विविध चांदी-सोने के वाहन तथा मूर्तियां हैं, जो उत्सवों के अवसरों पर ही निकाली जाती हैं।

मंदिर के तीसरे घेरे में श्रीवरदराज का मंदिर ऊँचे चबूतरे पर बना है, जिसे ऐरावत हाथी का प्रतीक माना जाता है। चबूतरे के सामने नृसिंह का मंदिर है। यहां से परिामा करते हुए, पीछे मंदिर की ओर से चबूतरे पर चढ़ने के लिए चौबीस सीढ़ियॉं बनी हैं, जिन्हें गायत्री के अक्षरों का प्रतीक माना जाता है। ऊपर जाने पर जगमोहन में तीन द्वारों के अंदर मानवाकार भगवान विष्णु की श्यामवर्ण चतुर्भुज मूर्ति विराजमान है। उनके गले में शालिग्रामों की माला शोभायमान है। मंदिर की परिामा मार्ग में अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। यहीं पर श्री आदि शंकराचार्य की कामकोटी पीठ है, जहां वे स्वयं विराजमान होते थे। श्री रामानुजाचार्य के समय में इस मंदिर के प्रधान महात्मा कांचीपूर्ण शूद्र थे। रामानुजाचार्य ने इन्हें अपना गुरु बनाया था। कहा जाता है कि भगवान वरदराज महात्मा कांचीपूर्ण से वार्तालाप करते थे। श्रीरामानुजाचार्य ने श्रीरंगम् जाने से पूर्व साठ वर्षों तक यहां रहकर वैष्णव सम्प्रदाय के सिद्घांतों का प्रचार किया था।

– निर्विकल्प विश्र्वहृदय

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