खत्म हुई भटकन

Khatam Hue Bhatkanजी हॉं, मैं हूँ ज़िन्दगी के ज़ज्बे से लबालब भरी, जोशो-खरोश से सराबोर छब्बीस वर्षीय युवती श्रुति। आज मेरे लिये ज़िन्दगी नाम है कुछ कर गुज़रने का, आगे बढ़ने का, अपने साथ-साथ दूसरों के लिये भी जीने का। ज़िन्दगी कितनी हसीन, कितनी प्यारी और कितनी अपनी-सी लगती है, जब आपके पास उसे जीने की ताकत के साथ-साथ उसे समझने की फुर्सत और कुछ करने का मकसद हो। लेकिन ज़िन्दगी हमेशा एक जैसी नहीं होती। ये विधाता रचित वो किताब है, जिसमें सुख और दुःख के दो अध्याय गडमड होकर चलते हैं। कौन-सा पृष्ठ आपके लिये खुशियों की सौगात और कौन-सा वेदना-व्यथा से भरी घड़ी ले आये, कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसे में कुछ समय के लिये तो दुःख-सुख से भरी समय की उस धारा के साथ बहने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचता है। मगर इस बहाव में सुख ा़र्ंिजन्दगी को सुखद अहसास से भरकर भी ज़िन्दगी की गहराई से वंचित रखते हैं। जबकि दुःख जीवन के प्रति विरक्ति जगाकर भी ज़िन्दगी के करीब ले आते हैं। वो दुःख ही तो हैं, जो ज़िन्दगी के फलसफे को समझने की काबिलियत हममें पैदा करते हैं।

आप सोच रहे होंगे कि महज 26 साल की उम्र में ज़िन्दगी के प्रति ऐसे अनुभव मैं कैसे रखती हूँ, तो मैं बता दूँ कि जो ज़िन्दगी की कठोरता को न झेल सका, वो उसकी सुन्दरता को भी न जान सकेगा। आप समझ ही गये होंगे कि मैं क्या कहना चाहती हूँ?

तो सुनिये, कुछ समय पहले तक मैं भी एक बहुत ही सामान्य-सी लड़की थी। एक मध्यम वर्गीय परिवार की चार संतानों में सबसे छोटी बेटी। मेरे पिता सरकारी महकमे में क्लर्क थे। हमारी गुजर-बसर का सहारा उनका मामूली-सा वेतन ही था, जिसमें कतर-ब्योंत करके उन्होंने दोनों बेटों को तो इस लायक बना दिया कि वे भी उन्हीं की तरह सरकारी महकमों में क्लर्क हो गये। मगर हम बेटियों को उन्होंने स्कूली शिक्षा ही दिलवा कर हाथ पीले कर अपने मध्यमवर्गीय पिता-धर्म का निर्वाह कर लिया।

जब मेरी शादी हुई तो मैंने बारहवीं की परीक्षा दे रखी थी। मेरी ससुराल शहर के उस मुहल्ले में थी, जहॉं का माहौल गॉंव जैसा था। घर में ही चार भैंसों की एक छोटी-सी डेयरी थी। घर का माहौल मुझे जरा भी पढ़ाई लायक न लगा। जब मेरा बारहवीं का नतीजा आया तो प्रथम श्रेणी में परीक्षा उत्तीर्ण करके मेरे उत्साह का ठिकाना न रहा। इसी उत्साह के अतिरेक में मैं तत्काल सासू मॉं के पास पहुँच गयी और परिणाम सुनाकर आगे पढ़ने की इच्छा जाहिर की। चारपाई पर बैठकर पड़ोसन से गुफ्तगू कर रही सास के मिजाज ने झट पलटी मारी और मुझे खा जाने वाली निगाहों से देखते हुए बोली, “”तू पढ़ेगी तो चार भैंस बंध री इननै कूण संभालेगा? … तू जाणै तेरा खसम जाणै मन्नै के पूछै सै, घणा पढ़ण का चा था तो आपणे घरां पढ़ती?”

मैं अपराधी की तरह खड़ी थी। सास जज बनी हुई थी, जिसके सामने मेरी कोई दलील न चलती थी। मेरे मन में ठेस तो बहुत लगी, मगर मैं कर ही क्या सकती थी! मन मसोसकर घर के काम में लग गयी। सांझ ढले मेरा पति बलजीत घर आया तो मेरे मन में यह सोचकर आशा की किरण जागी कि हो सकता है, ये ही मेरे मन को समझे और साथ ही अपनी मॉं को भी समझा-बुझा कर राज़ी कर ले। इसी चाह के वशीभूत मैंने एकांत पाते ही अपने मन की बात उन्हें बतायी, तो उनका व्यवहार भी अपनी मॉं से अलग न निकला –

“”हॉं, हॉं, इब तेरे ताहीं कॉलेज खुलवाऊँगा मैं? चुपचाप काम कर और दो रोटी खा, तन्नै क्या की कमी सै? जै घणी प्रौफैसरणी बनण का शौक सै तो तू जाणै तेरा बाप जाणै?”

नयी दुल्हन की खुशियॉं मॉं-बेटे के पैरों तले कुचली जा चुकी थीं। ये तो शुरूआत भर थी। बलजीत के लक्षण तो पहले दिन से ही मुझे अच्छे न लगे थे। इस वाकये के बाद तो उन लोगों का वह रूप भी सामने आया कि निभाना मुश्किल लगने लगा। अय्याश पति की ाूरता और सास की कठोरता बेटे के जन्म के बाद भी कम न हुई। मार-पीट और गाली-गलौज जैसा पाश्र्विक व्यवहार सहना जिन्दगी की दिनचर्या का हिस्सा हो गया। कभी किसी दिन घर में शांति रहती, तो मन अनजानी आशंका से धड़कता रहता, जाने कब कौन-सा तूफान टूट पड़े? जिन्दगी कांटों भरी राह थी, जिस पर चलना ही नियति मान कर मैं अपने बेटे की उंगली थामे बढ़ी जा रही थी। मायके से कोई विशेष सहायता की आस करना बेमानी था। दोनों भाई मॉं-बाप से अलग होकर अपने-अपने परिवारों में मस्त थे। मां मेरी हालत देखकर बीमार रहने लगीं। पिताजी की पेंशन से घर का खर्च और दवा-दारू ही मुश्किल से हो पाता था। इसीलिए मैंने कभी खुलकर उन्हें अपने दुःखों के बारे में नहीं बताया। मगर मॉं तो मॉं ठहरी बिन शब्दों के ही मेरी पीड़ा उनके भीतर संप्रेषित हो जाती थी। जब भी मैं उनसे मिलने आती तो उनकी आंखें मेरे खामोश चेहरे पर खुशी की झलक तलाशतीं और असमर्थ होकर पीड़ा की गर्त में डूब फफक पड़तीं। मॉं के निधन का समाचार पाकर मैं मायके पहुंची तो पिता देखते ही रो पड़े।

“”श्रुति, तुम्हारी मॉं आखिरी क्षणों में तुम्हें देखने की चाह मन में लिये ही इस दुनिया से चली गयी बेटी।”

मैं अभागी मॉं से अंतिम क्षणों में भी न मिल सकी। सास और बलजीत ने बार-बार आते पिता के टेलीफोन के बारे में मुझे कुछ नहीं बताया था। दुःखी व आहत मन के लिए यह एक ऐसी चोट थी, जो दाम्पत्य-जीवन के प्रति मेरी आस्था को तार-तार कर गयी। मॉं का अंतिम-संस्कार होते ही सास ने तकाजा देते हुए मुझे घर चलने के लिए कहा। मगर मेरा व्यथित मन मॉं की तेरहवीं तक पिता के पास रुकना चाहता था। इस पर भी तीसरे दिन सास ने आकर वो प्रपंच रचे कि कभी मुंह न खोलने वाले पिता भी आाोश से भर उठे और दो टूक शब्दों में कह दिया, “”आप जाइये, अब श्रुति वहॉं नहीं आयेगी।”

मॉं की मौत दुःखों से भरी ज़िन्दगी में दुःख की इन्तिहा थी, पर कहते हैं कि अंधेरों की इन्तिहा से गुजर कर ही उजाले की किरणें फूटती हैं। ससुराल वालों ने मुझे चलने के लिये बहुत तंग किया, धमकियां दी गयीं। भाइयों को मेरे पिता के खिलाफ भड़काया, बिरादरी के सामने जलील करने का कोई मौका नहीं छोड़ा, मगर उनका ये अभद्र व्यवहार पिता के मन को विचलित करने के साथ-साथ मुझे उस नर्क से निकालने की उनकी मनशा को दृढ़ करता चला गया। बस, पिताजी ऐसे अड़े कि उन्हें किसी भी तरह से कोई डिगा सका। उनके साहस से मेरी राह के कांटे खत्म हो चुके थे। मेरा बेटा नाना के साथ ऐसा घुला-मिला कि उसे मेरी जरूरत ही न रही। मैंने भी एक पार्लर पर ब्यूटीशियन का काम सीखना शुरू कर दिया। मेरी मेहनत रंग लाई और कुछ ही महीनों बाद थोड़ी-सी पगार पर ही सही मुझे उसी पार्लर में नौकरी मिल गयी।

काम में हाथ जमने के उपरांत मैंने पिता जी के प्रयासों किराये पर एक दुकान ले ली। बैंक से लोन लेकर अपना पार्लर खोल लिया। मेरे व्यवहार और साफगोई से काम चल निकला। पार्लर चला तो लगा जैसे भटकी हुई जिंदगी राह पर लौट आयी है। आज मेरे पार्लर में मेरे अलावा दो और लड़कियॉं हैं, जिन्हें भी जीवन की भीषण जद्दोजहद के बाद मेरी तरह स्वावलंबी बनकर जीना सीखने को मजबूर होना पड़ा। दो साल पहले हजार रुपये माहवार की नौकरी करने वाली मैं, अब लगभग हजार रुपये रोज कमा लेती हूँ। दोनों लड़कियों को वाजिब वेतन देती हूँ। कोशिश करती हूँ कि उनकी मेहनत का हक पूरी तरह से अदा कर सकूँ। मगर मैं सबसे ज्यादा आभारी हूँ अपने पिता की, जिन्होंने समाज की कुरीतियों से समझौता न कर मेरा साथ दिया और मुझे इतना सक्षम बना दिया कि मैं जीवन की कठिन डगर पर दौड़ती हुई चली जाऊँ बिना इस बात की परवाह किये कि मेरे पैरों नीचे कांटे हैं या फूल।

– आशा खत्री “लता’

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