माँ

Maa a short Storyसुबह पार्क में घूमते वक्त अचानक उर्मि ने कहा, आप माँ जी को क्यों नहीं बुला लेते? यहॉं पर हर तरह से उन्हें अच्छा लगेगा। घूमने को साफ-सुथरे पार्क हैं। उनकी पसंद का भोजन मैं खुद पकाकर दूंगी। बच्चों का साथ भी माँ जी को अच्छा लगेगा और हमें भी इस बहाने उनकी सेवा का मौका मिल जाएगा।

सेवा तो मैं करना चाहता हूँ और यह भी जानता हूँ कि तुम्हें भी थोड़ा-बहुत सहारा हो जाएगा माँ का, और कुछ नहीं तो बातें बनाने में ही सही। लेकिन माँ न जाने क्यों यहॉं आना ही नहीं चाहतीं? मेरी बात सुनकर उर्मि ने उल्टा मुझे ही उलाहना दे डाला, कभी मन से भी कोशिश की है, माँ जी को लाने की! मेरे लिए यह नयी बात नहीं थी। उर्मि ने मुझसे कई बार इस तरह के आग्रह किये थे, मगर हर बार कोई न कोई अड़चन आ जाती थी।

मेरे मानस-पटल पर अब तीन महीने पहले का वह दृश्य उतरने लगा, जब मैं पिछली बार माँ को लेने के लिए घर गया था। उस वक्त मैंने माँ को हर तरह से यकीन दिलाया था कि वह चंडीगढ़ आकर अकेलापन महसूस नहीं करेंगी। उनका मन लग जाएगा। यहॉं के सुंदर व साफ-सुथरे बगीचों का हवाला दिया था और यह भी कहा था कि उस छोटे से कस्बे में जहॉं घूमने के लिए एक भी ढंग का पार्क नहीं है, क्या दम नहीं घुटता!

इस पर माँ सामने दीवार पर टंगी पिताजी की तस्वीर को निहारने लगी थीं। उनकी आँखें कुछ नम हो आयीं थीं, अपने आप को सहज करने की कोशिश करते हुए कहा था, बेटा, इसी छोटे-से कस्बे ने तुझे चंडीगढ़ जाने लायक बनाया है, भूल गया क्या? तू कभी इन्हीं गलियों में लंबा-सा कच्छा पहने दौड़ता रहता था। याद है, एक दिन एक गाय तेरा वही कच्छा पीछे से चबा गयी थी और पड़ोसी सीते की बहू, जो रिश्ते में तेरी भाभी लगती है, तुझे घर छोड़कर गयी थी। याद है कि नहीं.. या बुलाऊँ तेरी उसी भाभी को और…। इससे पहले कि माँ कुछ और कह पातीं, मैंने उनके होंठों पर अपनी हथेली का ताला लगा दिया था। लेकिन तब तक माँ ने हमेशा की तरह मेरे आग्रह को कुएं में डालकर मुझे उसे डूबते हुए देखने को मजबूर कर दिया था।

अगले दिन चलने से पहले मैंने माँ के पॉंव छूए तो उनकी आंखें डबडबा गयी थीं। मैंने तब कहा था, माँ रहने दो, देख ली तुम्हारी ममता। तुम तो बस बड़े को ही प्यार करती हो। यह छोटा परदेस में कैसे भी रहे तुम्हें कोई फिा ही नहीं है। माँ अपने आपको नहीं रोक पायी थीं। उनकी दोनों आंखों से फिर ममता की अविरल धार बह चली थी, जिसमें मेरा रोम-रोम भीग गया था। उस व्यंग्य के कसने का मुझे आज भी मलाल है, मगर संतोष इस बात का है कि तब माँ के मुंह से अचानक निकल गया था, बेटा, तेरे पास भी आऊंगी कुछ दिन ठहरने के लिए, पर अभी कुछ छोटे-मोटे काम रहते हैं, उनको निपटा लूं। मैं फिर कुछ नहीं कह पाया और आशीर्वाद लेकर घर से बाहर आ गया था। जहॉं गली में ब्रीफकेस लिए भतीजा व भाभी मेरा इंतजार कर रहे थे।

भाई पहले ही स्टेशन पर पहुँच चुके थे, टिकट लेने के लिए। मैंने गाड़ी में बैठते ही भाई साहब को कहा था, भाई साहब, माँ को कुछ दिन के लिए मेरे यहॉं भी रहने के लिए भेज दीजिए। उन्होंने पलटकर इतना भर ही कहा था, मैं मन से कोशिश करूँगा और हॉं, पहुँचते ही मुझे मोबाइल पर इनफार्म कर देना। बच्चों को हमारी ओर से प्यार देना। देखो, तुम्हारी भाभी ने बच्चों के लिए कुछ दिया है..। तब तक गाड़ी तेज हो चुकी थी।

यह सोचते-सोचते हमने जाने कब गार्डन के दो चक्कर पूरे कर लिए, पता ही नहीं चला। उर्मि ने चुटकी लेते हुए कहा, हॉं जी, हो आये माँ के पास, मिल लिए ख्यालों ही ख्यालों में? मैं झेंप-सा गया। मेरे मुँह से इतना भर ही निकला, चलो घर, बस आज इतना ही।

घर आकर माँ से फिर वही फोन का सिलसिला शुरू हो गया। उर्मि ने अपनी जेठानी से तो मैंने भाई साहब से कई बार बातें कीं इस बारे में, मगर हर बार यही उत्तर मिलता कि हम तो कहते हैं, लेकिन माँ का अभी मन नहीं है शायद और फिर वह दिन भी आ गया जब माँ आने को राज़ी हो गयीं। मैंने खुशखबरी के साथ ही ढेर सारी ताकीद उर्मि व बच्चों को दे डाली और चल दिया माँ को लेने।

अगले ही दिन माँ हमारे बीच थीं। माँ की हर छोटी इच्छा व आवश्यकता का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता। बच्चे बहुत खुश हुए, अपनी दादी माँ से मिलकर। एक-दो दिन तो जरूर लगे उन्हें अपनी दादी के साथ खुलने-घुलने में। काफी दिनों के बाद जो आयी थीं उनकी दादी। लेकिन उसके बाद तो वे अपनी दादी का दामन ही नहीं छोड़ते। स्कूल से आते ही दादी, भोजन करना है तो दादी, सोने से पहले दादी से कहानियां सुनना और न जाने क्या-क्या बतियाते रहते वे सब दादी के साथ। कई बार दादी की घूमने की नागा करवा देते तो कई बार खुद ही समय से पहले दादी को साथ लेकर गार्डन पहुँच जाते। हमें भी लगा कि परिवार तो अब बना है। मैं भी मन के किसी कोने में अपने आपको फिर से एक बच्चे जैसा महसूस करने लगा। सब कुछ बहुत ही अच्छा चल रहा था कि एक रात उर्मि ने मुझे जगाते हुए कहा, माँ के कमरे से कराहने की आवाजें आ रही हैं, जरा देखना तो। मैं और उर्मि माँ के कमरे में आये तो देखा कि माँ उठकर बैठी हुई थीं और उनका दाहिना हाथ बायें घुटने के ऊपर रखा हुआ था।

माँ क्या हुआ? बेटा, लगता है कल शाम मैं गार्डन में कुछ ज्यादा ही घूम आयी। अब ये घुटना परेशान कर रहा है। माँ के बताने पर मैंने पूछा, माँ क्या पहले भी कभी यहॉं दर्द हुआ है?

दर्द तो हुआ है बेटा, मगर इस तरह का नहीं। मैंने दीवार की घड़ी की तरफ नजर दौड़ाई तो देखा करीब तीन बजकर 15 मिनट हो चुके थे। मन ही मन फैसला किया कि अभी डॉक्टर के पास लेकर जाना ठीक रहेगा। लगभग सुबह का पहला पहर शुरू होने वाला था। माँ को डॉक्टर के पास चलने के लिए कहा तो उन्होंने साफ मना करते हुए कहा, मुझसे अब ज़ीना नहीं उतरा जाएगा। कोई दर्द की गोली पड़ी हो तो दे दो। दर्द कम होने और दिन निकलने के बाद डॉक्टर को दिखला देना।

मेरे बार-बार कहने पर भी जब मॉं नहीं मानीं तो मैंने ब्रूफेन की गोली मॉं को देते हुए कहा, मॉं, कल मेरे साथ पीजीआई जरूर चलना।

अगले दिन मॉं को पीजीआई में दिखलाया। डॉक्टर ने एक्स-रे के लिए लिखा। एक्स-रे में कुछ साफ पता नहीं चल रहा था। फिर डॉक्टर ने एमआरआई के लिए लिखते हुए कहा, जल्दी करवा लीजिए, अगर यहॉं के भरोसे रहेंगे तो बीमारी और बढ़ जाएगी, लेकिन एमआरआई की डेट नहीं आएगी। आप चाहें तो आसपास के किसी भी प्राइवेट एमआरआई सेंटर से करवा लें। वह आपको एक घंटे के अंदर ही रिपोर्ट दे देंगे और तीन बजे तक रिपोर्ट मिलने पर मुझे आज ही दिखा लें। मैंने डॉक्टर साहब को धन्यवाद किया और चल दिया एमआरआई के लिए।

एमआरआई सेंटर से एमआरआई करवा कर, रिपोर्ट डॉक्टर को दिखाई तो उन्होंने कहा, घबराने की कोई बात नहीं है। मैं यह दवाइयॉं लिख रहा हूँ। एक हफ्ते तक इन्हें खाकर फिर अगले बुधवार को दिखाना और हॉं, फीजियोथेरेपिस्ट को रेफर कर रहा हूँ। कल सुबह आठ बजे आकर चैकअप करवा लेना।

केमिस्ट से दवाइयॉं लेकर हम घर चले आये। अगले दिन फीजिशयन से चैकअप करवाया तो उन्होंने 300 रुपये काउंटर पर जमा करने व दस दिन तक लगातार मालिश व एक्सरसाइज के लिए आने के लिए कह दिया। दवा और मसाज से मॉं को थोड़ा-बहुत आराम मिलने लगा था। तीन दिन ही गुजरे होंगे कि जाने कब सुबह-सवेरे मॉं अपना सामान बांधकर ड्राइंग-रूम में बैठीं, हमारे जागने का इंतजार कर रही थीं। मैंने मॉं के पॉंव छूकर इसका कारण पूछा, तो उन्होंने बिना किसी लाग-लफेट के कहा, बेटा, मुझे बस में बैठा दो। मैं घर जाना चाहती हूँ।

मैं अवाव्-सा मॉं का मुंह देखता रह गया। बस इतना ही कह पाया, मां यह भी तो आपका ही घर है। हॉं है बेटे, लेकिन मुझे जाना है। मॉं ने एकदम यह बात फिर से दोहराई तो मेरे मन में शक हुआ कि कहीं उर्मि की किसी बात से मां के जज्बात आहत नहीं हुए। मैंने उर्मि की आँखों में देखा, तो उसने अपनी आँखों की पुतली घुमाने के साथ ही कंधे उचका दिये और अधरों की भाव-भंगिमा के साथ कह उठी कि उसे कुछ नहीं मालूम।

मैंने मॉं से ही पूछना उचित समझा। मॉं आपके इलाज का क्या होगा? ऐसा क्या काम आन पड़ा है जो अचानक बीच में ही इलाज छोड़कर जाना पड़ रहा है, या फिर हमसे कोई गलती हो गयी है।

बेटा, मैं देर रात तक तुम्हारे बारे में और अपने इलाज के बारे में ही सोचती रही। कुछ तय नहीं कर पा रही थी। एक तरफ तो इन बच्चों के मोह ने जकड़ लिया है, दूसरी ओर इलाज से भी घुटने में कुछ-कुछ फायदा हो रहा है, मगर फिर अंत में, जब ज़मीर के ज़िम्मे बात सोची तो मेरे ज़मीर ने यही गवाही दी कि मुझे वापस बड़े बेटे के पास ही जाना चाहिए। उनकी बात सुनकर मैं असमंजस में पड़ गया कि ऐसी क्या बात है, जो मां का जाना इतना जरूरी हो गया! फिर ढेर सारे सवाल-जवाब होते रहे। पहले तो मां हमारे सारे सवालों को लगभग टालती रहीं, मगर जब मैंने बड़े भाई साहब को लेकर उलाहने वाले लहजे में बात करनी शुरू की, तो मां ने कहा, बेटा, मेरा प्यार-दुलार तो तुम दोनों भाइयों के लिए एक-सा है, लेकिन मैं जानती हूँ तुम्हारे पास हर चीज की मौज है। भगवान की दया से अच्छी नौकरी, रहने को बढ़िया सरकारी मकान, शहर की सारी सुख-सुविधाएँ सभी कुछ तो है। तुम तो जानते हो तुम्हारे भाई का हाथ तंग है और अक्सर उसे काम के सिलसिले में घर से बाहर जाना पड़ता है, कभी दस-पंद्रह दिन के लिए तो कभी-कभार दो-तीन महीने के लिए भी। पीछे से बच्चे अकेले पड़ जाते हैं और फिर बड़ी वाली लड़की भी दसवीं में आ पहुँची है। कस्बे का माहौल तो तू जानता ही है बेटा। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने पूछ ही लिया, मां, भैया का फोन आया था क्या?

मां ने मेरे चेहरे को ध्यान से देखा। मानों कुछ पढ़ रही हों, फिर सॉंसों को हल्का-सा तेज छोड़ते हुए बोलीं, नहीं बेटा, मुझे तो पहले से ही पता था। तेरा भाई तो आज सुबह ही छत्तीसगढ़ के लिए रवाना हो चुका होगा। मैं पहले से ही बताकर तुम्हारा दिल नहीं तोड़ना चाहती थी वरना तुम…। मॉं इतना ही कह पायी थी कि उर्मि बीच में ही बोल पड़ी, मॉं जी, अभी तो हम सबका मन लगा था। देखो ना, बच्चे भी कितने खुश हैं आपके साथ और आप भी अच्छे से रह रहे हैं। आपका ट्रीटमेंट भी चल रहा है। हमारी तरफ से किसी तरह की कोई कमी हो तो बताइये या फिर आप हमें अपनी सेवा का पुण्य नहीं देना चाहतीं।

यह सुनकर मॉं थोड़ी देर के लिए खामोश हो गयीं। उर्मि के सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, बेटी, वो सब तो ठीक है। मेरे लिए दोनों ही बेटे बराबर हैं।

जैसे संपत्ति में दोनों को बराबर का हिस्सा दिया है, वैसे ही अगर भगवान ने चाहा तो सेवा का मौका भी बराबर का ही दूंगी। तू चिंता न कर, जब चलने-फिरने लायक नहीं रहूंगी तो तेरे पास ही तो आऊँगी सेवा करवाने। तब तेरी जेठानी नहीं कर पाएगी मेरी टहल। उस वक्त तू जीभर कर सेवा करना और पुण्य कमा लेना। लेकिन आज मेरे बड़े बेटे व तेरी जेठानी को मेरी जरूरत तुमसे ज्यादा है। मॉं हूँ ना बेटी। शायद, तुम अभी न समझ पाओ। उनकी बातें सुनकर हमसे कुछ भी कहते नहीं बन रहा था। हम निरुत्तर हो गये थे। थोड़ी देर बाद मां अपने घुटने पर हाथ रखकर सीढ़ियां उतर रही थीं और मैं उनका थैला उठाये पीछे-पीछे चल रहा था। बच्चे सोए हुए थे और उर्मि दरवाजे पर खड़ी मॉं को भीगी हुई पलकों से निहार रही थी।

– सुशील हसरत नरेलवी

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