मदुरै – मरकत से बनी मीनाक्षी देवी की मूर्ति

Maduraiवैगे नदी के किनारे स्थित मदुरै नगर काफी सुन्दर है। यह पहले दक्षिण पांड्य देश की राजधानी रहा है। इसकी ख्याति विश्र्वविख्यात मीनाक्षी देवी के मंदिर के कारण है। यह मंदिर नगर के बहुत ही निकट है। यह काफी प्राचीन है। कहते हैं कि यहां शिवलिंग की पूजा सातवीं शताब्दी से ही होती थी। देवी मीनाक्षी का मंदिर बारहवीं शताब्दी में चट्यवर्मन सुन्दर पाण्ड्य के शासनकाल में बना। बाहर की मीनारें तेरहवीं से सोलहवीं शताब्दी के बीच बनीं। नायक वंश के राजाओं ने करीब दो सौ वर्ष शासन करते हुए, इसके कई मण्डप और हजार खम्भों वाला सभा-भवन बनवाया। इसकी मरम्मत सन् 1877 ई. में वैनागर वंशजों ने करवाई। सन् 1960-63 ई. में पी.टी. राजन समिति ने दोबारा इसकी मरम्मत कराई और मीनारों को सज्जित किया।

मंदिर के पट तीन बजे खुलते हैं, परन्तु मैं दो बजे ही पहुंच गया और इस विशाल मंदिर के बाहरी अहाते को घूम-घूम कर देखने लगा। इस मंदिर की चहारदीवारी में चार द्वारों पर चार ऊंची नौ मंजिली कलात्मक मीनारें हैं। विभिन्न रंगों से सज्जित ये मीनारें बहुत ही सुन्दर लगती हैं। दक्षिण की मीनार सबसे बड़ी 160 फुट ऊंची है। इसका निर्माण सोलहवीं शताब्दी में चेव्वन्ति चेट्टी ने कराया था। सबसे पुरानी मीनार पूर्व भाग की है, जिसे तेरहवीं शताब्दी में भारवर्मन सुन्दर पाण्ड्य ने बनवाया था। पश्र्चिम की मीनार चौदहवीं शताब्दी में परााम पाण्ड्य ने बनवाई थी। उत्तर की मीनार मोट्टैगोपुर कहलाती है, जिसमें कोई कलात्मकता नहीं है। इस मीनार से लगे पांच ऐसे शिला स्तंभ हैं, जिनको थपथपाने से मधुर ध्वनि होती है।

प्रायः लोग पहले मीनाक्षी देवी के दर्शन के लिए पूर्वी द्वार से प्रवेश करते हैं, परन्तु मैं पहले आ गया था, इसलिए सुन्दरेश्र्वर महादेव के मंदिर के प्रवेश-द्वार पर पहुंचा। यहां सामने अच्छा-खासा बाजार है। मंदिर के प्रवेश-द्वार के सामने आठ स्तम्भों पर खड़ा मण्डप है। स्तम्भों पर शिव के अनेक रूपों की प्रतिमाएं ऊकेरी गई हैं। मण्डप के बीच में स्वर्णध्वज, नन्दी और बलिपीठ हैं।

इसके अतिरिक्त कई कलात्मक मूर्तियां भी हैं। इनमें मीनाक्षी देवी के विवाह का दृश्य भी हैं। शिव जी के मंदिर में प्रवेश-द्वार पर बारह फुट ऊंची अगल-बगल द्वारपालों की मूर्तियां हैं। प्रथम द्वार में छः स्तम्भों पर बना एक पीठ है। अगले द्वार में नटराज की विशाल मूर्ति है। इसके बाद गर्भगृह में जो चौंसठ भूतगणों, आठ हाथियों और बत्तीस शेरों के समालम्ब पर स्थित है, उस शिवलिंग की प्रतिष्ठा की गई है। शिव स्थान के समीप ही बाहर हजार खम्भों वाला मण्डप है, जिसे अदिपनाथ मुदलिया ने बनवाया था। इसमें भी अनेक कलात्मक प्रतिमाएं हैं। अदिपनाथ मुदलियार की अश्र्वारोही प्रतिमा भी है।

पूर्व-द्वार से प्रवेश करने से पहले अष्टशक्ति मण्डप है, जिसके दोनों ओर गणेश जी और सुब्रह्मण्यम जी की मूर्तियां हैं। दीवारों पर शिव जी की लीलाओं के अनेक चित्र चित्रित हैं। इस मण्डप के बाद मीनाक्षी नायक नामक बड़ा मण्डप मिलता है, जिसके बीच में एक बड़ा हर्म्य है। इसमें शिव और पार्वती भील और भीलनी के रूप में हैं। पश्र्चिमी कोने में एक हजार आठ पीतल के दीपों की पंक्ति है। एक और मण्डप पार करने पर एक सरोवर दिखाई देता है। कहते हैं कि तमिल के प्रसिद्ध काव्य “तिरुक्कुल’ की रचना यहीं की गई थी। इसके अनेक पद दीवारों पर खुदे भी हैं। यहां से मीनाक्षी और सुन्दरेश्र्वर के मूल स्थानों के ऊपर बने सोने के गुम्बद दिखाई देते हैं।

मीनाक्षी देवी के मंदिर के प्रवेश-द्वार पर तिमंजिला गोपुर है। बाहर के प्राकार में स्वर्णध्वज स्तम्भ तथा कई मूर्तियां हैं। मीनाक्षी देवी की मूर्ति मरकत पत्थर की बनी है। देवीजी के दर्शन के बाद आगे बढ़ने पर आठ फुट ऊंची विनायक जी की मूर्ति है।

वहां से और आगे सुन्दरेश्र्वर महादेव का वही स्थान आ जाता है। इस प्रकार यह मंदिर अत्यंत विशाल और कलात्मक है।

इसे भली प्रकार से देखने के लिए दो-तीन दिन का समय चाहिए। यहां दर्शनार्थियों की भीड़ भी काफी होती है। टिकट पर यहां अलग लाइन रहती है, परन्तु उसमें भी मुझे एक-डेढ़ घण्टा लग गया। मदुरै प्रकृति की गोद में स्थित एक सुन्दर शहर है। इसके आस-पास के प्राकृतिक दृश्य अत्यंत मनोरम हैं। इसकी सीमा पर वंडियूर नामक एक सुन्दर तालाब है। इस तालाब के बीचोंबीच चार छोटे मण्डपों से घिरा हुआ एक कलात्मक मण्डप है। मदुरै से अठारह किलोमीटर दूर पूर्व की ओर पहाड़ की चोटी पर अलग एक सुन्दर विष्णु मंदिर है। मदुरै से नौ किलोमीटर दूर तिरुप्परंकुन्नम का विख्यात सुब्रह्मण्यम जी का मंदिर है, जो एक गुफा में है। यहां भी मुझे हिन्दी में बात करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। दक्षिण के किसी भी रूप में भिन्न होने का अहसास बिल्कुल नहीं जागा। मन में एक उदात्त एवं व्यापक आनंदानुभूति लेकर मैं कन्याकुमारी चल पड़ा।

-डॉ. परमलाल गुप्त

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