हैदराबाद नगर में बीसवीं शताब्दी के महान संत सद्गुरु नारायण महाराज

भाग्यनगर रूपी आकाश में श्री सद्गुरु नारायण महाराज चंद्रमा की भांति सुशोभित हैं। यह चंद्र-प्रभा भारतवासियों के दुःख-कलेश हरण करने वाली, उद्धार करने वाली और आनंद एवं समाधान देने वाली है।

एक बार की बात है, ज्येष्ठ शु. 9 शके 1836 (सन् 1914) को श्रीनारायण महाराज के एक शिष्य काशीराम हलवाई ने उन्हें अपने घर पर आमंत्रित किया। महाराज ने निमंत्रण स्वीकार किया। काशीराम ने अपने सारे बन्धु-बान्धवों तथा मित्रों को महाराज के दर्शन, प्रवचन आदि के लिए निमंत्रित किया। कार्यक्रम सायंकाल 5 बजे रखा गया था। निमंत्रित भक्तों की संख्या लगभग 100 थी। भागीरथी बाई, रंगोबा महाराज आदि शिष्यगण महाराज के साथ थे। काशीराम का घर सद्भक्तों से भरा था। श्री नारायण महाराज की पाद-पूजा हुई। उनके उपदेशामृत से भक्त जन संतृप्त हुए। काशीराम अपने नौकरों को पेड़े तैयार करने की कहकर अपने काम में जुट गये। इधर प्रवचन समाप्त हुआ। भगवान श्रीराम के फोटो को पेड़ों का भोग लगाना और मंगल आरती करना शेष था। सेठ साहब ने नौकरों को तैयार पेड़े लाने की आज्ञा दी। करीब 6-30 बजे का समय होगा। अंधकार की कालिमा छंट रही थी। नौकर खोवा घोंटने में व्यस्त थे। उन दिनों विद्युत प्रकाश की व्यवस्था नहीं थी। कड़ाही के ठीक ऊपर लकड़ी पर से सांप गुजर रहा था। उसके कंठ से विष की दो बूंदें कड़ाही में भी गिर गयीं। संध्या की कालिमा में यह बात किसी की दृष्टि में नहीं आयी। और पूरे पेड़े विषयुक्त हो गये। भक्त समूह के मध्य चौकी पर बैठे महाराज को अंतर्दृष्टि से इस घटना का पता चल गया। यह ईश्र्वरीय व्यवस्था थी। होनहार को कोई रोक नहीं सकता था। सभी सकुशल रहें, यह उनकी भावना थी। उन्होंने मन ही मन सोचा कि मैं इस हाहाकारी दुर्घटना में बाधा डालकर सबकी प्राण-रक्षा करूंगा। आत्मबलिदान कर इस निःसर्ग नियम में बाधा डालूंगा। इस प्रकार विचार कर विषयुक्त पेड़ों में पांच पेड़े उन्होंने एक अलग थाल में निकाले। अपनी सिद्धि द्वारा सारे पेड़ों में से विष आकर्षित कर उन पॉंच पेड़ों में केंद्रित किया। शेष सभी पेड़ों को निर्विष कर दिया। भगवान का भोग लगाया गया, मंगलारती हुई। भक्तों में वे पेड़े प्रसाद के तौर पर वितरित किये गये। स्वामी ने विषयुक्त पांच पेड़े स्वयं भक्षण किये। महाराज ने जो कुछ किया, किसी को पता नहीं चला। सभा विसर्जित हुई। महाराज ने भी अपने शिष्यों के साथ टांगे में बैठकर अपने आश्रम के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में विषाक्त पेड़े अपना प्रभाव बताने लगे। उन्हें उल्टी आयी। आश्रम पहुंचने तक तबीयत बहुत बिगड़ गयी। भागीरथी बाई, रंगोबा आदि शिष्यगण चिंतित हुए। उन्होंने महाराज से तबीयत खराब होने का कारण पूछा तो महाराज ने सारी घटना बताई। और कहा कि कल प्रातः सात बजे मैं शरीर छोड़ूंगा। आज रात भर श्रीराम नाम-स्मरण, गीता पाठ, भजन आदि का कार्यक्रम चलाए जाएँ। दूसरे दिन ज्येष्ठ शुक्ल दसमी, बुधवार को प्रातः सात बजे महाराज ने अपना शरीर त्याग दिया। नारायण श्री सूर्य नारायण में विलीन हो गये। उनकी अन्तिम यात्रा में सहस्त्रों भक्तजन उपस्थित थे। पुराने पुल के श्मशान घाट में सायं 5 बजे अग्नि-स्पर्श हुआ।

तीसरे दिन उनकी विभूति एवं अस्थि एकत्रित करते समय महाराज की एक माला और कौपिन वस्त्र शिष्यों के हाथ लगे। वे नहीं जले थे। सबको बड़ा आश्र्चर्य हुआ। उन्हीं दो वस्तुओं पर समाधि बनायी गई है। इस बात से यह विदित होता है कि महाराज यह बताना चाहते थे कि वे संसार से गये नहीं, वे हमेशा हैं। शरीर नाशवान है, परन्तु आत्मा परमात्मा का अंश होने के कारण वह उसी में विलीन हो जाता है। उनकी उक्त समाधि आज भी अत्यंत जाग्रत है। भक्तों की मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। आज भी ज्येष्ठ शुक्ल 10 वीं (गंगा दशहरा) के दिन सहस्त्रों भक्तजन समाधि के दर्शन एवं महा-प्रसाद प्राप्त करने के लिए यहॉं आते हैं। उस दिन एक मेला-सा लगा रहता है।

हुसैनिआलम वासियों को बड़ा गर्व है कि एक ऐसी विभूति उनके परिसर में विद्यमान है।

– अनंतराव रामदासी

You must be logged in to post a comment Login