महर्षि वशिष्ठ ने जब विश्र्वामित्र को ब्रह्मर्षि कहा

Varishtha Vishwamitraविश्र्वामित्र अपनी विशाल सेना सहित विजयी होकर अपने राज्य को लौट रहे थे। मार्ग में ब्रह्मा जी के पुत्र महर्षि वशिष्ठ का गुरुकुलमय आश्रम पड़ा। विश्र्वामित्र ने उनका आशीर्वाद लेने के विचार से आश्रम में प्रवेश किया। महर्षि वशिष्ठ ने राजा के रूप में उनका यथोचित सम्मान किया और कुछ समय आश्रम में रुककर आतिथ्य स्वीकार करने का विनम्र निवेदन किया। विश्र्वामित्र ने कहा, “”आप जैसे तपस्वी ऋषिवर का आतिथ्य स्वीकार करना मेरे लिये गौरव एवं सम्मान की बात होगी, किन्तु मेरे साथ एक लाख से अधिक का सैनिक-समूह तथा काफी संख्या में हाथी-घोड़े हैं, जिससे उनके आवास तथा भोजनादि की व्यवस्था करने में आपको तथा गुरुकुल परिसर निवासी विद्यार्थियों को असुविधा एवं अनावश्यक कष्ट होगा।” इस पर मुनिवर वशिष्ठ ने कहा, “”राजन, मेरे इस गुरुकुल में आपको और आपके सैनिक-समूह को किसी प्रकार की असुविधा तथा कष्ट नहीं होगा। सब व्यवस्थाएं सुचारु रूप से हो जायेंगी।

महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में कपिला नामक अलौकिक क्षमता युक्त एक कामधेनु गाय थी, जिससे आश्रम तथा गुरुकुलवासियों को कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं हुआ। कामधेनु की अलौकिक क्षमता से आवश्यक आवश्यकताओं की निर्बाध एवं निरंतर आपूर्ति हो जाती थी। दो दिन तक ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के गुरुकुलमय आश्रम में मिले आदर तथा सत्कार से अभिभूत होकर विश्र्वामित्र ने उनसे प्रस्थान की अनुमति मांगते हुए कहा, “”हम आपके इस आतिथ्य सत्कार के लिये सदैव कृतज्ञ रहेंगे। एक राजा के रूप में तो मुझे आपके गुरुकुल तथा आश्रम को कोई अमूल्य भेंट देनी चाहिए, किन्तु युद्ध से लौटने के कारण यह संभव नहीं है। इसके विपरीत मैं जाने से पूर्व आपसे एक चीज मांगता हूं। आशा है मेरी इच्छित वस्तु देकर आप मुझे उपकृत करेंगे।” इसके उत्तर में ऋषिवर ने कहा, “”आप मांगिये, यदि मैं इच्छित वस्तु देने में समर्थ हुआ तो आपको निराश नहीं करूंगा।” विश्र्वामित्र ने कहा, “”ऋषिवर, मुझे आपकी कपिला नामक कामधेनु गाय चाहिए।” “”राजन, कामधेनु गाय देना मेरे लिये संभव नहीं है। इस गौमाता की महत्ती कृपा से ही इस आश्रम तथा गुरुकुल का निर्बाध संचालन संभव हो पा रहा है।” हठी राजा विश्र्वामित्र ने जब कामधेनु गाय को बलात् ले जाने का प्रयास किया तो कपिला गाय के खुरों से असीम सैनिकों की उत्पत्ति हुई, जिससे विश्र्वामित्र को पराजित होकर खिन्न मन से अपने राज्य को लौटना पड़ा।

इस घटना के पश्र्चात् ही अपनी पराजय से क्षुब्ध एवं निराश विश्र्वामित्र ने राजपाट का त्याग कर दिया। गहन वन में जाकर दीर्घकाल तक घोर तपस्या की। जब भी कभी ब्रह्मऋषि वशिष्ठ से उनकी भेंट होती थी, तो ऋषिवर वशिष्ठ उन्हें “राजऋषि’ कहकर संबोधित किया करते थे, जबकि विश्र्वामित्र उनके मुख से स्वयं के लिये ब्रह्मऋषि का संबोधन सुनना चाहते थे। अंततः एक दिन तपस्यालीन विश्र्वामित्र में पुनः राजसी तेज आ गया। उन्होंने निश्र्चय किया कि ऋषि वशिष्ठ यदि उन्हें ब्रह्मऋषि कहकर संबोधित करेंगे तो ठीक है अन्यथा वह उनकी हत्या कर देंगे। इसी बदले की भावाना के साथ एक संध्या को ऋषि विश्र्वामित्र ने शस्त्र लेकर वशिष्ठ मुनि के आश्रम की ओर प्रस्थान किया। आश्रम के अति समीप पहुंचकर विश्र्वामित्र वशिष्ठ युगल की बात सुनने लगे।

वशिष्ठ मुनि की पत्नी अरुंधती ने कहा, “”ऋषिवर, आज कितनी स्निग्ध शीतल चांदनी है, जिसका प्रकाश चहुं ओर फैल रहा है।” अरुंधती के इस कथन के उत्तर में महर्षि वशिष्ठ ने कहा, “”नहीं प्रिय, यदि प्रकाश देखना है तो ऋषि विश्र्वामित्र की तपस्या का प्रकाश देखो, जो तीनों लोकों को प्रकाशमान कर रहा है। उनके तप का कोई सानी नहीं है।” ऋषिवर वशिष्ठ के इन क्षमाशील शब्दों ने पशुबल पर विजय पायी। वशिष्ठ जी की इस उपमा को सुनकर गायत्री मंत्र के रचयिता विश्र्वामित्र ने ऋषि वशिष्ठ के सम्मुख अपना शस्त्र फेंककर उनके चरणों में नमन किया और उनके शरणागत हुए। इस पर ब्रह्मा जी के मानस-पुत्र महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें उठाकर आलिंगनबद्ध करते हुए कहा, “”ब्रह्मऋषि, आपकी यश-कीर्ति आने वाले युगों तक दैदीप्यमान रहेगी।”

– देवव्रत वशिष्ठ

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