परखनली और फाइल

रमेशचन्द्र ने बी.एस.सी में प्रथम श्रेणी पायी थी। इसके बावजूद वे पशोपेश में थे। वे एक मामूली हैसियत के किसान के लड़के थे। उनका रुझान बचपन से ही विज्ञान की ओर था। उनमें प्रतिभा, लगन और महत्वाकांक्षा थी। उन्हें अपने समाज और देश की मिट्टी से प्यार था और वे अपने देश के लिए अपना जीवन समर्पित करना चाहते थे। इसलिए वे गांव की पढ़ाई पूरी करके शहर के कॉलेज में पढ़ने लगे। परंतु माली हालत ठीक न होने से उन्होंने आगे पढ़ाई का विचार छोड़ दिया । वे चाहते तो आई.ए.एस. होकर कोई अफसर बन सकते थे। पर उनके मन में वैज्ञानिक शोध का सपना था। इसलिए नेशनल फिजिकल लेबोरेटरी में नौकरी कर ली।

रमेशचंद्र के सहपाठियों ने उन्हें सनकी समझा, क्योंकि वे जानते थे कि अपने देश में आई.ए.एस का क्या महत्व है और वर्षों की मेहनत से बने एम.डी. और एम.ई. डिग्रीधारी डॉक्टर और इंजीनियर तक आई.ए.एस. अफसर बनना अच्छा समझते हैं। प्रेमलाल रमेशचंद्र के अंतरंग मित्र थे। उनमें भी विशेष प्रतिभा और शोध की आकांक्षा थी। एक अमीर पिता के पुत्र होने के कारण उन्हें इसके लिए सुविधाएं भी उपलब्ध थीं। वे अन्य सहपाठियों की तरह रमेशचन्द्र को सनकी नहीं समझते थे, बल्कि उनके विचारों के कायल थे। वे जानते थे कि यदि रमेशचंद्र को सुविधाएं मिल सकें तो वह संसार का एक बड़ा वैज्ञानिक बन सकता है। भारत में उनकी प्रतिभा कुन्द हो जायेगी, क्योंकि यहां शोध की सुविधा नहीं है और जहां वह नौकरी कर रहा है, वहां तो बिल्कुल नहीं। इसलिए वे रमेशचंद्र को अपने साथ विदेश ले जाना चाहते थे। इसमें रमेशचन्द्र के देशप्रेम के साथ उसका स्वाभिमान भी आड़े आता था। इन सब बातों को सोचकर उन्होंने दूसरे तरीके से रमेशचन्द्र को राजी करने का फैसला किया। उन्होंने रमेशचन्द्र से कहा- क्यों यार नेशनल फिजिकल लेब्रोरेटरी में तो तुम्हें रिसर्च की खूब सहूलियत होगी? रमेशचंद्र ने मायूसी से उत्तर दिया- नहीं भाई, यही तो गड़बड़ है। वहां रिसर्च की कोई सुविधा नहीं है। कोई ऐसी नौकरी तलाशनी पड़ेगी जिसमें मैं रिसर्च भी कर सकूं।

तो यार, तुम मेरे साथ लंदन क्यों नहीं चलते? देखो जाने भर की बात है, बाकी सब इंतजाम हो जायेगा। वहां तुम नौकरी के साथ-साथ पी-एच.डी भी कर लोगे।?

लेकिन…

लेकिन-वेकिन क्या? वहां तुम्हें इतना पैसा मिल जायेगा कि किराये का कर्ज आसानी से उतार सको और फिर हमेशा तो रहना नहीं है। उच्च शिक्षा पाकर तुम देश का ज्यादा भला कर सकोगे। प्रेमलाल ने रमेशचंद्र की बात काटते हुए कहा।

रमेशचंद्र अपने मित्र की इस बात का प्रतिकार नहीं कर सके। उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी। प्रेमलाल ने प्रवेश, पासपोर्ट, वीसा आदि का सब प्रबंध कर लिया और दोनों लंदन चले गये।

रमेशचंद्र लंदन की रंगीनियों से प्रभावित नहीं हुए। उनका सारा ध्यान पढ़ाई-लिखाई और शोध में केन्द्रित रहा। प्रेमलाल को भी उन्होंने भटकने नहीं दिया। इस कारण दोनों ने तीन साल में अपना शोध का काम पूरा करके डॉक्टरेट प्राप्त कर ली। प्रेमलाल का मन देश लौटने का नहीं था। वे रमेशचन्द्र को भी रोकना चाहते थे। पर रमेशचन्द्र नहीं रुके। वे अकेले ही स्वदेश लौट आए। उनके शोध-कार्य से प्रभावित होकर आई.आई.टी में उन्हें सोलिड स्टेट लेबोरेटरीज के फिजिक्स डिवीजन का प्रभारी बना दिया गया।

रमेशचन्द्र का मन निरन्तर किसी महत्वपूर्ण शोध के लिए बेचैन रहता था। परंतु वे कुछ कर नहीं पाते थे। इसके अलावा वे प्रतिभा-निर्यात को देश के प्रति गद्दारी मानते थे। इसी अंतर्द्वन्द में उनके दो वर्ष बीत गए। प्रेमलाल लंदन से अमेरिका चले गए। वहां वे नासा में वरिष्ठ वैज्ञानिक के रूप में काम करने लगे। वहां से वे रमेशचन्द्र से निरंतर सम्पर्क बनाये हुए थे और रमेशचन्द्र को अमेरिका आने के प्रलोभन दे रहे थे। रमेशचन्द्र को भी नासा से वरिष्ठ वैज्ञानिक के पद पर काम करने का प्रस्ताव आया और एक कमजोर क्षण में उन्होंने अमेरिका जाने का फैसला कर लिया। वे यह संकल्प करके अमेरिका गए कि वे शीघ्र अपने साधन जुटाकर स्वदेश लौट आयेंगे और अपने ज्ञान का लाभ अपने देश को ही देंगे।

रमेशचन्द्र के अमेरिका पहुंचने पर प्रेमलाल बहुत प्रसन्न हुए। दोनों साथ-साथ रहने और काम करने लगे। उनकी सारी बोरियत दूर हो गयी।

रमेशचन्द्र ने नासा में वरिष्ठ वैज्ञानिक के रूप में काम करते हुए कई उपलब्धियां हासिल कीं। उन्होंने प्रक्षेपास्त्र में काम आने वाले इन्फ्रारेड कंडक्टर एण्ड सेमी कंडक्टर मेटीरियल्स विकसित किया, जिसकी दो डिजायनों के पेटेंट नासा ने कराये। उनकी वैज्ञानिक जगत में खूब चर्चा हुई प्रेमलाल ने रमेशचन्द्र को बधाई देते हुए कहा, कहो भाई, अब तो तुम समझ ही गए होगे कि अपने देश में रहने के बजाय यहां आकर तुमने ठीक किया।

नहीं यार, मेरा मन अब भी कचोटता है। अगर कोई मौका मिला तो मैं अपने देश लौटूंगा और साथ में तुम्हें भी चलना पड़ेगा। मैंने तुम्हारी बात मानी, अब एक बार तुम्हें भी मेरी बात माननी पड़ेगी। रमेशचन्द्र ने प्रेमलाल का हाथ अपने हाथ में लेकर आत्मीयता से उत्तर दिया।

क्या तुम अपने देश से अब भी उम्मीद रखते हो? हां, विदेश में सफल होने पर जरूर वहां सम्मान मिलता है और प्रतिभा पलायन का रोना रोया जाता है। अब शायद वहां भी हम लोगों की पूछ होगी। पर क्या ये सब सुविधाएं वहां मिल सकती हैं? यहां हम कितने आराम और ठाठ-बाट से रहते हैं! वहां क्या मिलेगा? मैं तो परिवार बुलाकर यहीं स्थायी रूप में रहने की सोच रहा था।

भाई, तुम यह क्यों नहीं सोचते कि अपना देश गरीब है। हमें उससे अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। वह हमसे अपेक्षा रखता है।

ठीक है। इसी तरह आदर्शवाद का ढोल पीटते रहो। वहां जाने पर आटा-दाल का भाव मालूम पड़ेगा। वहां की प्रगति की बाधा केवल गरीबी नहीं है। नेता और अफसर तो मुल्क को नोंच-खसोट कर बड़े शान से रह रहे हैं।

भाई प्रेमलाल, हमेशा उल्टा क्यों सोचते हो? मनुष्य को विषम परिस्थितियों में भी आशावादी होना चाहिए।

ठीक है भाई, वक्त आने पर देखा जायेगा। अभी से यह तकरार क्यों, अभी तो जश्न मनाने का वक्त है। चलो आज मेरी तरफ से तुम्हारे सम्मान में पार्टी है। मैंने कुछ दोस्तों को बुलाया है।

शीघ्र ही रमेशचन्द्र की सम्मान पूर्वक अपने देश वापस आने की मनोकामना पूर्ण हो गयी। भारत सरकार की पहल पर रमेशचन्द्र और प्रेमलाल दोनों को रक्षा विभाग में प्रक्षेपास्त्रों के डिटेक्टर पद हेतु बुलाया गया। प्रेमलाल का मन नहीं था, परंतु रमेशचंद्र की ज़िद की वजह से उन्हें भी आना पड़ा।

इनकी सबसे पहली फजीहत उन निजी उपकरणों को लेकर हुई, जो वे अमेरिका से अपने साथ लाये थे। प्रेमलाल ने रमेशचन्द्र को छेड़ा, लो भाई, यह देश में हमारा पहला स्वागत है।

रमेशचन्द्र ने इसे विशेष तूल नहीं दिया। दोनों ने रक्षा शोध-संस्थान की सालिड स्टेट फिजिक्स लेबोरेटरी में वरिष्ठ रक्षा वैज्ञानिक के पद पर काम करना शुरु कर दिया।

अपने काम के सिलसिले में उन्हें बड़े कड़वे अनुभव हुए। बजट, स्टाफ, आवश्यक वस्तुओं की खरीदी आदि पर उनका कोई नियंत्रण नहीं था। यह सब कुछ उनके अफसर के हाथ में था। सारा स्टॉफ अफसर की जी-हजूरी करता था। इन्हें इसकी आदत नहीं थी। अपने काम से देश को लाभ पहुंचाना ही इनका लक्ष्य था।

अतः असम्मानजनक स्थितियों के बावजूद वे अपने काम में लगे रहे और एण्टी एअरक्राफ्ट मिसाइल विकसित करना शुरु कर दिया।

-डॉ. परमलाल गुप्त

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