रोटी

Rotiya a Hindi Storyआज फिर वही हुआ, थाली में भोजन परोसा ही था कि आंखें नम हो गईं।

मिहिर के साथ अक्सर ऐसा ही होता है, थका-मांदा रात्रि को जब लौटता है, तो ऐसा लगता है, जैसे उसे घर काटने को दौड़ रहा हो। बरामदे में चमगादड़ों का निरंतर घूमना जारी रहता है। वह पूरब से पश्र्चिम की ओर उड़ती रहती हैं, जबसे बल्ब फ्यूज हुआ है, उसे बदलकर नया लगाने का मन ही नहीं किया। अरे! जब मन में ही अंधेरे ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया हो, तब बल्ब जलाने की औपचारिकता निभाने भर से क्या लाभ… यही सोचकर मिहिर बल्ब खरीदकर नहीं लाया। वैसे भी कई बार इलेक्ट्रॉनिक की दुकान के सामने से निकलता, तो भी उसे बरामदे में पसरने वाले अंधेरे का स्मरण नहीं हो पाता।

बस ले-देकर एक कमरा पूरे मकान में ऐसा रह गया है, जिसकी ट्यूबलाइट फ्यूज नहीं हुई, न जाने कब से अपना दायित्व निभा रही है। हो सकता है कि घर के विद्युत उपकरणों से उसने कोई सीख ले ली हो कि जब घर के मालिक को किसी की परवाह नहीं है, एक बार फ्यूज होने के बाद वह बल्ब नहीं बदलता तो फ्यूज होकर क्यों अपने कर्त्तव्य से विमुख हो। पर मिहिर के लिए इन बेजान वस्तुओं का क्या मोल। घर हरा-भरा था, तब वह भी खुशियों में चार चांद लगाने के लिए तत्पर रहता था, किन्तु जब घर की मालकिन ही नहीं, तब वह किसके लिए घर को चमकाए, चहकाए।

पूरे पांच बरस हो गए मिहिर को एकाकीपन से जूझते हुए। वैदेही थी तो सब कुछ ठीक-ठाक था। सारी खुशियां जैसे घर के आंगन में अठखेलियां किया करती थीं, दो आज्ञाकारी पुत्र वैभव व किशोर तथा दो फिरकनियों-सी बेटियां नेहा व आंचल। वैदेही के इर्द-गिर्द हर समय शिकवे, शिकायतें व छेड़खानी का दौर चलता रहता। किशोर शिकायत करता, मां! भैया मुझे चिढ़ा रहा है, जब भी तुमसे भैया की कोई बात बताता हूं तो छेड़ता हुआ कहता है जा अम्मा की गोद में घुस जा, अभी तो तेरी दूध पीने की उम्र है…। नेहा कहती, देखो मां! आंचल मान नहीं रही है, आज फिर इसने मेरी फ्रॉक पहनकर गंदी कर दी। छि… मैं इसकी उतरन नहीं पहनूंगी। शिकायत-दर-शिकायत, फिर सफाई का दौर…। मां कहती, यह घर है या अदालत। किस-किस के झगड़े निपटाऊं। फिर प्यार भरी डांट लगाती, सुधर जाओ, वरना तुम्हारे पापा से शिकायत कर दूंगी, बच्चे एकदम सहम जाते।

मिहिर के आने से पहले ही वैभव अपनी मेज पर किताब खोलकर बैठ जाता, किशोर भी गृहकार्य में जुट जाता और नेहा अपनी मां के साथ किचन में चली जाती। आंचल भी अगले दिन के लिए अपना स्कूल बैग संवारने में जुट जाती। टाइम-टेबिल के अनुसार पुस्तकें व कॉपियां बैग में रखती तथा यह उपक्रम तब तक करती रहती, जब तक मिहिर उसे आवाज देकर न बुलाते। मिहिर के आते ही उसके कान उनकी ओर ही होते। मिहिर दो पल के लिए सुस्ताता, फिर आवाज देता, बेटी आंचल… एक गिलास पानी तो लाना।

जी पापा अभी लाई। कहकर आंचल इस प्रकार अपना बैग ठूंसकर एक ओर सरकाती, जैसा बहुत भारी-भरकम काम कर रही हो। कुछ ही क्षण में पानी का गिलास लेकर पापा के सम्मुख खड़ी हो जाती।

इस बार पढ़ाई तो ठीक चल रही है न? मिहिर प्रश्न करता।

जी, पापा। संक्षिप्त उत्तर देती।

तेरी बहुत शिकायतें आ रही हैं। इस बार ढंग से पढ़ ले, नम्बर अच्छे नहीं आए तो सरकारी स्कूल में डाल दूंगा। क्रोध दर्शाते हुए मिहिर कहता।

आंचल चुप्पी साध जाती। रोज-रोज एक ही प्रकार के वाक्य को सुनकर कब तक डरे। पापा रोज यही धमकी देते हैं, किन्तु अमल नहीं करते, आंचल के नम्बर कभी अच्छे नहीं आए, तिस पर पापा ने महंगे स्कूल से उसका नाम नहीं कटाया। पता नहीं कब इसको अक्ल आएगी और यह ढंग से पढ़ना शुरू करेगी।

वैदेही भी आंखों ही आंखों में आंचल को घुड़कती कहती, सुधर जा, नहीं तो बहुत पछताएगी। सहेलियों के साथ घूमना-फिरना छोड़, पढ़ाई में मन लगा। नहीं तो जिन्दगी बर्बाद हो जाएगी।

आंचल पर इन सब बातों का कोई असर ही नहीं पड़ता। नये जमाने की लड़की आंचल को टिपटॉप रहना ही पसन्द है। नये कपड़े आए नहीं कि पहनकर बैठ गई, फिर कहीं जाने के नाम पर वही राग, नये कपड़े नहीं है, क्या पहनकर जाऊं?

वैदेही कुढ़कर रह जाती, हे भगवान! यह लड़की है या बला। एक भी तो आदत अच्छी नहीं है। आंचल बेफ्रिक अपने में ही मस्त रहती।

नेहा और आंचल में यही फर्क है। नेहा में बचपन से ही बड़प्पन है। आंचल के पैदा होने के बाद जैसे उसके कोई शौक नहीं रह गए हैं। वह मिहिर की मजबूरी समझती है, इसलिए इच्छाएं नहीं पालती। घर में पापा अकेले कमाने वाले हैं, फिर बच्चों की पढ़ाई का बोझ क्या कम है।

वैदेही स्वयं उसे बाजार ले जाकर सामान दिलाती और बार-बार समझाती, तू इतनी बड़ी नहीं हुई, जितना अपने आपको समझती है, अच्छी तरह रहा कर।

नेहा अपनी मां की आंखों में झांकती और कहती, मां, आपने भी तो पिछले दो बरस से कोई नयी साड़ी नहीं खरीदी।

मेरी बात छोड़, अब मैं किसे नयी साड़ी दिखाऊंगी। तू लड़की है, लड़कियों की तरह रहना सीख। हर समय किताबी कीड़ा बनी रहती है। मां बनावटी क्रोध दिखाती हुई बोली।

नेहा मां के इस व्यवहार से मुस्कुराये बिना नहीं रह पाती और कहती, मां, जब तुम्हें गुस्सा नहीं आता, तो गुस्सा दिखाने का नाटक क्यों करती हो?

वैभव भी अपनी पढ़ाई के प्रति गम्भीर था। मिहिर पर अधिक बोझ न पड़े, सो कुछ ट्यूशन करके वह अपना जेब खर्च निकाल ही लेता था। उसकी देखा-देखी किशोर भी मन लगाकर पढ़ने लगा, जिसके सुपरिणाम भी आये। वैभव को केन्द्रीय कार्यालय में क्लर्की मिल गई तथा किशोर को इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला। दाखिले की फीस का जुगाड़ मिहिर को ऋण लेकर करना पड़ा। वैदेही का भरपूर समर्थन जो था मिहिर के साथ, वह स्वयं अभावों से जूझती रही, किन्तु बच्चों को कभी एहसास तक न होने दिया।

वैदेही थी, तब सब कुछ ठीक-ठाक था, नियमित भी। सुबह समय पर नाश्ता, ऑफिस के लिए लंच, शाम को आते ही नाश्ता, फिर रात्रि भोज। उसके बनाये हुए भोजन की बात ही कुछ और थी। यह उसकी अंगुलियों के स्पर्श का प्रभाव था या उसकी आत्मीयता का। भोजन में स्वाद ऐसा कि अंगुलियां चाटते रह जाओ।

उस भोजन का स्मरण कर मिहिर जैसे यथार्थ पर आ गया। सामने थाली में जो भोजन परसकर रखा था, वह मजबूरी का भोजन था, जैसे पेट भरने के लिए कुछ सामान इकट्ठा कर लिया हो। सुबह छः रोटी बनाई थी, तीन सुबह ही मिर्च की चटनी बनाकर जल्दी-जल्दी ढकोस कर काम पर चला गया था और शेष तीन शाम के लिए रख छोड़ी थीं। सब्जी के अभाव में बाजार से चाट का एक दोना पैक करा लाया था। नित्य इस प्रकार का अनियमित भोजन उसकी विवशता बन चुका था, चूंकि भोजन के समय कुछ न कुछ निगलना है। इसलिए सुबह की तीन रोटियों के साथ चाट थाली में परसकर बैठ गया था। साथ में पानी का गिलास, यदि गले में फंदा लग जाए तो पानी पीकर हलक से भोजन का कौर उदर में धकेल दे, ताकि मुंह से उदर तक का गलियारा साफ हो जाए। अन्यथा अक्सर ऐसा ही होता है, भोजन करते समय अतीत का स्मरण होते हुए कुछ मौन संवाद गले की फांस बनकर भोजन का मार्ग अवरुद्ध कर ही देते हैं।

वैदेही ने जीते जी घर में कुछ अनर्थ नहीं होने दिया। उसके बाद जीवनचर्या के अर्थ ही बदल गए। कितने चाव से वैभव का विवाह करके लाई थी वह। अपने पुराने गहनों को तुड़वाकर नये गहने बनवाए थे उसने, आधुनिक डिजाइन के। मिहिर ने कहा भी था, भाग्यवान, ऐसा उत्कृष्ट सोना आजकल मिलता नहीं है फिर क्यों इनका नाश कर रही है, सुनार किसी का सगा नहीं होता।

बदले में वह मुस्कुराए बिना न रह सकी थी। उसने कहा था, अजी, तुम कब से घर के मामलों में टांग अड़ाने लगे। तुमने आज तक मेरे गहनों को नहीं देखा, फिर आज!

मिहिर से कुछ कहते न बना, तनिक देर चुप रहकर बोला, तुम्हारी मर्जी जैसे चाहो करो।

वो तो मैं कर ही रही हूं। लोक रिवाज तो निभाने ही हैं। वैभव के ब्याह में ससुराल वाले गहने और जेवर ही तो देखेंगे। रामनौमी में से बड़ी बहू के गहने बन जाएंगे और तगड़ी में से छोटी के। अरे! गहनों का हिसाब-किताब तो मैंने लगा रखा है। लड़कियों के लिए मेरा गले का सैट और हाथों के भारी कंगन काम आ जाएंगे। सोना खरीदने की जरूरत नहीं पड़ेगी। बड़े इत्मीनान से कहा था उसने, जैसे गहनों का पूरा गणित उसके दिमाग में बैठा हो।

मिहिर उस दिन वैदेही की समायोजन और न्याय क्षमता का लोहा मान गया था तथा समझ गया था कि उसकी कम तनख्वाह में भी व्यवस्थित गुजारे का राज़ क्या है। परिवार की संरचना में वर्तमान और भविष्य के प्रति सामंजस्य की कला का उत्कृष्ट नमूना प्रतीत हो रही थी वैदेही। मिहिर ने चुटकी भी ली, भाग्यवान, तुम्हें तो किसी बड़े संस्थान का योजना प्रमुख होना चाहिए था, नाहक ही गरीब के घर उलझी हो।

मुस्कुराई थी वैदेही, फिर कुछ शब्द फूटे- तुम भी बस यूं ही।

वैभव की बहू सुगुना को भी किसी कमी का अहसास नहीं होने दिया था उसने। हां, सुगना के आने के बाद मिहिर पर कुछ अघोषित प्रतिबंध अवश्य लग गए थे। अब वह बैठक तक ही सिमट कर रह गया था। बैठक में ही सोना, उठना-बैठना। वैदेही को जब भी तन-मन की कुछ बात करनी होती, तो वह बैठक में ही चली आती थी। घर-गृहस्थी की गाड़ी अच्छी तरह चल रही थी। वैभव भी घर के खर्च में हाथ बंटा रहा था। एक आज्ञाकारी पुत्र की तरह घर की समृद्धि में योगदान दे रहा था। बड़ी बेटी नेहा के लिए सुयोग्य वर की तलाश जारी थी।

मिहिर प्रत्येक छुट्टी का उपयोग नेहा के लिए योग्य वर ढूंढ़ने में ही करता था। एम.ए. पूरा करके वह घर में बैठ गई थी। वैदेही का मानना भी यही था कि लड़की की अधिक योग्यता वर चयन में बाधाएं उत्पन्न करती हैं, क्योंकि सवाल वधू की शैक्षणिक योग्यता वाले वर के चयन तक सीमित हो जाता है। मिहिर के लिए भी यही बाधा बना। जहां भी जाता, पहले योग्यता, फिर आर्थिक स्थिति पर जाकर बात खत्म हो जाती। लड़के वाले शादी के अनुमानित व्यय के बारे में पूछते तथा कोई न कोई बहाना बनाकर बात आगे बढ़ने से पहले ही समाप्त कर देते। बेबस मिहिर मन मसोसकर रह जाता, घर में चर्चा करता तो वैदेही दुःखी हो जाती।

फिर वैदेही को न जाने क्या हुआ, वह कौन-सी चिन्ता में घुलती चली गई। नेहा के विवाह में विलंब की चिन्ता थी अथवा अन्य कुछ। उसने खाट पकड़ ली, अनेक विशेषज्ञ चिकित्सकों को दिखाया, किन्तु रोग पकड़ में नहीं आया। मात्र दो माह के अन्तराल में ही वैदेही की आत्मा नश्र्वर देह से प्रयाण कर गई, बिलखते रह गये परिजन। एकाकी हो गया मिहिर, किससे बात करे, किससे अपने दुःख-दर्द बांटे, किसे अपना समझकर तन-मन की कहे।

मिहिर को घर लौटते ही रिक्तता का आभास होता, तिस पर नेहा की बढ़ती उम्र का सवाल, आंचल की भी विवाह योग्य आयु। एक साथ ही मिहिर जैसे अनेक उत्तरदायित्वों से घिर गया। अब माता एवं पिता दोनों के उत्तरदायित्वों का निर्वाह भी उसे ही करना था।

समय बीतने लगा। घर में नेहा, आंचल एवं उनकी भाभी अर्थात वैभव की पत्नी के बीच भी कुछ खिंचाव आ गया। बिन मां की बेटियों को जो स्नेह अपनी भाभी से मिलना था, उस स्नेह के स्थान पर उन्हें भाभी की प्रताड़ना मिलने लगी। वैभव से शिकायत की, उसका भी कोई लाभ न हुआ। विवाह के बाद माता-पिता और भाई-बहनों की अपेक्षा पत्नी ही अधिक प्रिय होती है, वैभव की चुप्पी ने यही जता दिया। नेहा गम्भीर थी, सो उसने चुप रहने में ही भलाई समझी, किन्तु आंचल से चुप न रहा गया, उसने जो मन में आया भाभी को सुना दिया।

बात बिगड़ने का अंदेशा था। मिहिर की बायीं आंख महीनों फड़कती रही, जिससे वह आशंकित भी रहने लगा था कि अवश्य ही परिवार में कोई अनहोनी घटित होने वाली है। कहा भी गया है कि आशंकाएं या अज्ञात भय किसी वास्तविक घटना के होने का संकेत देने लगते हैं। मिहिर के साथ भी वही हुआ।

मिहिर ऑफिस से लौटा तो बहू को सामान बांधते हुए पाया। एक बारगी वह कुछ समझ न पाया। हिम्मत जुटाकर बहू से पूछा, बेटी सुगना यह क्या कर रही हो? घर का सामान क्यों बांध रही हो?

बहू कुछ देर चुप रही, फिर बोली, पिताजी, यह प्रश्न यदि आप अपने बेटे से करें तो अच्छा है। उन्होंने ही मुझे सामान बांधने का आदेश दिया है।

मिहिर के पैरों तले जैसे धरती खिसक गई। उसने लड़खड़ाते कदमों से वैभव के कमरे में प्रवेश कर पूछा, बेटा, इस घर में तुम्हें कोई समस्या है?

जी नहीं वैभव ने कहा।

फिर यह सामान बांधकर कहां ले जा रहे हो? मिहिर ने प्रश्न किया।

पिताजी, मैंने नयी कॉलोनी में अपने लिए रहने की व्यवस्था कर ली है।

मगर क्यों? अपना घर होते हुए भी तुमने यह फैसला क्यों किया? मिहिर की समझ में नहीं आ रहा था कि बिना पूर्व सूचना दिए वैभव इस प्रकार का कदम क्यों उठा रहा है।

पिताजी, अब मेरी भी गृहस्थी है। यह जरूरी नहीं कि मैं आपके साथ ही रहूं। वैभव ने दो टूक अपनी बात कह दी।

मिहिर को लगा, जैसे उनका दायां बाजू कटकर दूर जा गिरा हो तथा शेष शरीर पीड़ा से छटपटा रहा हो, किंतु कुछ कहने की हिम्मत उसमें शेष नहीं रही।

बिना विलम्ब किये वैभव घर छोड़कर चला गया। शेष रह गये तीन प्राणी- मिहिर, नेहा और आंचल। किशोर हॉस्टल में रहकर पढ़ाई में व्यस्त था। घर में घटित घटनाक्रम से अनभिज्ञ था वह। यदि घर में होता भी तो क्या कर लेता। यदि रिश्तों में अलगाव की खलल उत्पन्न हो जाए तो घर का वातावरण फटे दूध-सा हो ही जाता है।

दो माह बाद ही मिहिर की सेवानिवृत्ति निश्र्चित थी। सेवानिवृत्ति के उपरांत जैसे-तैसे मिहिर ने नेहा और आंचल के विवाह किए। वैभव द्वारा आर्थिक सहायता करना तो दूर रहा, वह विवाह में सम्मिलित भी नहीं हुआ। अवश्य ही कुछ गहरी बात रही होगी, किंतु मिहिर उसके इस व्यवहार से अचंभित अवश्य था। पुत्र का यह बर्ताव उसे कतई स्वीकार नहीं था। कटे वृक्ष की तरह आस्तत्वहीन सा रह गया था वह।

किशोर की पढ़ाई अभी शेष थी, उसकी पढ़ाई का खर्चा भी कम न था। प्रोविडेंड फंड, ग्रेच्युटी तथा अन्य सेवा लाभ जो भी मिहिर को सेवानिवृत्ति के उपरांत प्राप्त हुए थे, नेहा व आंचल के विवाह में खर्च हो गए। मिहिर के पास नयी नौकरी तलाश करने के अतिरिक्त अन्य चारा न था।

मिहिर को निजी व्यापारिक प्रतिष्ठान में नौकरी मिल भी गई। उसने कुछ राहत की सांस ली। बेटे से मिले जख्मों को वह भूल जाना चाहता था। वैदेही होती तो सब संभाल लेती। वैभव के अलगाव का दुःख न होता मगर वैदेही की अनुपस्थिति में एकाकी रहना ही मिहिर के लिए सबसे बड़ी समस्या बन गया। रात को व्यापारिक प्रतिष्ठान बंद करने की जिम्मेदारी मिहिर की ही थी। दिनभर मालिकों की जी-हुजूरी में एक टांग पर खड़े रहना जैसे उसकी नियति बन चुकी थी। तिस पर बाजार का काम, तकादा वसूलने की जिम्मेदारी भी उसी पर थी। मिहिर बखूबी समझ चुका था कि लाला की नौकरी करना आसान नहीं है। दस रुपये का काम करो, तब बदले में दो रुप्पली ही हथेली पर धरे जाते हैं, फिर भी खुश था, कम से कम दिन तो सही-सलामत कट जाता था।

चाट के साथ तीन रोटियां खाने से मिहिर की उदरपूर्ति नहीं हुई, वह किचन में घुसा। खाली डिब्बों में कुछ झांककर लौट आया। वैदेही थी तो भोजन के बाद कुछ मिष्ठान अवश्य खिलाती थी, भले ही पेठे की मिठाई हो या बेसन का लड्डू। वह समझती थी कि भोजन के बाद कुछ न कुछ मीठा अवश्य खिलाना चाहिए किंतु वह तो थी नहीं, सिर्फ भ्रम था कि किसी न किसी डिब्बे में मिठाई का कोई टुकड़ा पड़ा होगा।

मिहिर भन्नाया और बैठक में आकर बैठ गया, विचार मग्न…क्या इसी का नाम जीवन है, कुछ समय घोंसले में रहो और फुर्र से अपने आत्मीयों को उड़ते देखते रहो।

उसे कोई उत्तर नहीं सूझा, फिर विचारा…वैदेही ने इतनी जल्दी मेरा साथ क्यों छोड़ दिया? अपनी फूलों जैसी बेटियों का विवाह रचाए बिना वह क्यों चली गई? गृहस्थी से ऐसे समय उसने मुंह मोड़ लिया, जब सभी को उसकी जरूरत थी… और अब जब मेरी काया क्षीण होती जा रही है, मुझे सहारे की आवश्यकता है, तब वह मेरे साथ नहीं। परमात्मा तुझ पर भरोसा कैसे करूं। तुझे दुःख-हरता क्यों मानूं? जब तूने मेरी झोली में दुःखों का पहाड़ डाल दिया है। तू तो दुःखदाता हुआ दुःखहरता नहीं।

गहरे विषाद में डूब गया मिहिर। बुढ़ापे का सहारा समझा था वैभव को। विचारता था कि कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होगा, मगर किस कसूर की सजा दी है मुझे। मैंने कोई अपेक्षा नहीं की थी। उसका मेरे साथ खड़ा होना भर काफी था, फिर…, एक बारगी मन किया कि सल्फास खाकर सो जाए। अब उसके होने या न होने से किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता। दोनों बेटियों की शादी करके वह गंगा नहा चुका है। आगे वे जिस हाल में भी रहें, उनका नसीब है। जितना वह कर सकता था, उसने कर दिया। अब उसके वश में कुछ भी नहीं है। फिर उसकी आंखें चमकीं। जीते-जी मौत को गले लगाने का विचार भी कायरता है। देह किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए मिली है। परमात्मा की चाह को स्वीकार किये रहना ही व्यक्ति का कर्त्तव्य है। जब तक तन में प्राण हैं, तब तक जूझना ही है, रहना ही है, चाहे जिस हाल में रहा जाए।

विचारों के झंझावात में कब नींद लग गई, पता ही नहीं चला। अगली सुबह आंख देर से खुली। घड़ी पर नजर डाली तो आठ बज चुके थे और नौ बजे सेठ जी की दुकान खोलनी है। खाना बनाने का समय ही नहीं रह गया। मिहिर जैसे उधेड़बुन में लग गया, शीघ्रता से उसने बिस्तर छोड़ा, दैनिक क्रियाओं से निवृत्त हुआ और ताला लगाकर भूखे पेट ही व्यापारिक प्रतिष्ठान की ओर चल दिया। रास्ते भर अपनी दिनचर्या बुनता चला गया कि दिन में जैसे-तैसे पेट भरेगा। शाम को किसी पवित्र भोजनालय से आठ रोटी बंधवाकर ले आएगा। चार रात के भोजन में चाय के साथ खा लेगा और चार अगली सुबह के लिए रख लेगा। गोया सिर्फ पेट भरने तक ही मिहिर का चिंतन सिमट गया हो।

– डॉ. सुधाकर आशावादी

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