सद्गति का निर्धारण स्वविवेक से संभव

एक ओर ईश्र्वर अपनी भुजाएं पसारे गोदी में चढ़ाने का, छाती से लगाने का आह्वान करता है, दूसरी ओर लोभ और मोह के बंधन हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी की तरह बंधे हैं। स्वार्थान्धता की अहंता कमर में पड़े रस्सों की तरह जकड़े बैठी है। पीछे लौटें, जहां के तहां रुके रहें, या आगे बढ़ें? यह तीनों प्रश्न ऐसे हैं जो अपना समाधान आज ही चाहते हैं। अनिर्णीत स्थिति का असमंजस जाग्रत आत्माओं के लिए क्रमशः असह्म ही बनता जाता है।

वृक्ष बनने की महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए बीज को गलने का पुरुषार्थ दिखाना ही पड़ता है। जो बीज गलने में हानि और बचने में लाभ देखते रहे, उन्हें उनकी कृपणता तुच्छता के गर्त में ही गिराए रहती है। वे प्रगति की किसी भी दिशा में रंचमात्र भी आगे बढ़ नहीं पाते। दोनों ही मार्ग हर विवेकशील के आगे खुले पड़े हैं। एक प्रेय का, दूसरा श्रेय का। एक स्वार्थ का, दूसरा परमार्थ का। एक मूर्खता का, दूसरा दूरदर्शिता का। एक पतन का, दूसरा उत्थान का इन दोनों में से एक का चयन करने की चुनौती हर जाग्रत आत्मा के सामने खुली पड़ी रहती है।

दोनों ओर लाभ दिखते हैं और हानि भी। मन भटकता रहता है। कभी एक को अपनाने की बात सोचता है, कभी दूसरे को। कभी एक को पकड़ता है, कभी दूसरे को। कभी एक को छोड़ता है, कभी दूसरे को। इस असमंजस भरी मनःस्थिति को ही देवासुर संग्राम कहा गया है। इसी को अंतर्द्वद्व कहते हैं। जब तक यह स्थिति बनी रहेगी, तब तक कोई चैन से न बैठ सकेगा। अंतर्जगत में चलते रहने वाले इस महाभारत के कारण चीत्कार और हाहाकार छाया रहता है। इस स्थिति के रहते किसी को और कुछ भले ही मिल जाए, शांति एवं संतोष के दर्शन हो ही नहीं सकेंगे।

दैत्य पक्ष का तर्क है कि प्रत्यक्ष तो उपभोग है। उसका लाभ और आनंद तत्काल मिलता है। अधिकांश व्यक्ति उसी मार्ग पर चल रहे हैं। साथी स्वजनों का परामर्श और प्रोत्साहन उसी के लिए है। फिर अपने को भी दूसरों की तरह इसी मार्ग पर क्यों नहीं चलते रहना चाहिए? इंद्रियां वासना पूर्ति के लिए लालायित रहती हैं और उपभोग के जितने अवसर मिलते हैं, उतनी ही बार प्रसन्न होती हैं। आराम की, सुख-साधनों की इच्छा शरीर को हर घड़ी रहती है, विनोद मनोरंजन में जी रमता है। इनके साधन इकट्ठे करने में लगे रहने का प्रतिफल सुविधाओं और उपभोग सामग्री की बहुलता के रूप में तत्काल मिलता है, फिर इन्हीं के लिए सोचते और करते रहने में क्या हर्ज है? साथ तो कुटुंबी ही रहते हैं। उनकी अनुकूलता और प्रसन्नता पाने के लिए उन्हें सुविधा-साधन देना आवश्यक है। फिर वैसा ही क्यों न करते रहा जाए, जिसकी कुटुंबीजन अपेक्षा करते हैं। यह चिंतन, परामर्श दैत्य वर्ग का है। इसमें तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ बताया जाता है और कहा जाता है कि प्रत्यक्ष की उपेक्षा करके परोक्ष की अपेक्षा क्यों की जाए? इन तर्कों से प्रभावित जीवात्मा को लोभ और मोहग्रस्त जीवन जीना पड़ता है। वासना और तृष्णा ही उसकी गतिविधियों पर छाई रहती हैं। अहंता की पूर्ति इसी में लगती है। लोगों का परामर्श एवं सहयोग इसी के लिए मिलता है। समीपवर्ती वातावरण का प्रभाव भी मनोभूमि पर इसी रूप में आच्छादित रहता है।

अंतरात्मा में अवस्थित देव पक्ष कहता है, सृष्टा ने मनुष्य जीवन की धरोहर किसी विशेष उद्देश्य के लिए प्रदान की है। देवपक्ष का तर्क है कि तात्कालिक लोभ के आकर्षण में यहां माया का छलावा ही फैला हुआ है। लिप्सा बिजली की चमक की तरह ही चकाचौंध उत्पन्न करती है और क्षण भर में गायब हो जाती है। जिह्वा का चटोरपन या अश्लील कामुकता की चमक कुछ मिनट ही रहती है। इसके उपरांत पेट खराब होने और शरीर खोखला होने का संकट ही चिरस्थायी रूप में गले बंध जाता है। विलासी शृंगारिकता का उद्देश्य दूसरों को आकर्षित करना और अपना बड़प्पन जताना होता है, किंतु वास्तविक परिणाम इससे ठीक उलटा होता है। छिछोरापन, मनचलापन इससे टपकता है और अप्रमाणिकता की गंध इस सारे विन्यास से आती है।

ऐसे लोग किसी की आंख भले ही लुभा लें। विश्र्वास किसी का भी नहीं पा सकते। संबंधियों को अनावश्यक सुविधा साधन देते रहने से उनका स्वभाव, व्यक्तित्व और भविष्य बिगड़ता है। उनकी बड़ी-बड़ी इच्छाएं पूरी होने में जब कमी पड़ती है तो तुरंत आंखें बदल जाती हैं। संचय का धन दूसरे विलसते हैं और अपने को उसके लिए कोल्हू के बैल जैसी मेहनत, प्राण सुखाने वाली चिंता और अनंत काल तक सहने वाली प्रताड़ना के अतिरिक्त और कुछ पल्ले नहीं पड़ता।

देव पक्ष बुद्धि को निरंतर यही समझाने का प्रयत्न करता है कि इस सुरदुर्लभ सौभाग्य भरे अवसर को जीवन साधना में लगाया जाए और उसका सत्परिणाम वैसा ही पाया जाए जैसा कि प्रातः स्मरणीय, लोकश्रद्धा के भाजन, विश्र्व के मार्गदर्शक महामानव प्राप्त करते रहे हैं।

सुख-शांति की आकांक्षा आंतरिक उत्कृष्टता के सहारे पूरी होती है। साधनों की मृगतृष्णा में भटकने से थकान और खीज ही पल्ले पड़ती है।

कस्तूरी का मृग चैन तभी पाता है जब वह सुगंध का त्रोत अपनी नाभि में होने की जानकारी पा लेता है। सच्ची समृद्धि उत्कृष्ट मनःस्थिति है, उसी के आधार पर अनुकूल परिस्थितियां बनती हैं। यह जान लेने पर साधनों की लालसा और उपयोग की लिप्सा का समाधान होता है अन्यथा वह आग में घी डालने रहने की तरह घटती नहीं, बढ़ती ही रहती है।

अच्छा हो, ईश्र्वर को अपने अंतःकरण के आंगन में क्रीड़ा करने का अवसर दें। देवत्व को समर्थन करें। ऐसा विवेकपूर्ण निर्णय करें, जिसके आधार पर देवमानवों जैसी जीवन नीति निर्धारित की जा सके। यह निर्धारण ही पर्याप्त नहीं, इसे कार्यान्वित करने के लिए सत्संकल्प और उत्साह भी चाहिए। इसी उमंग भरे उभार को व्यक्तिगत जीवन में ईश्र्वर का अवतरण कहा जा सकता है।

-पं. लीलापत शर्मा

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