तेगबहादुर का बलिदान

Sikh Guru Tej Bahadur Ka Balidanमर कर दिखा गये,

तेगबहादुर एक राह।

रही हृदय में धधकती,

बादशाह की दाह।।

सिखों के नौवें गुरु का नाम था तेगबहादुर, जिनका स्मारक दिल्ली के चांदनी चौक में आज भी अवस्थित है। तेगबहादुर के बलिदान की गाथा सिखों में आज भी बहुत गौरव से गायी जाती है।

बात उस समय की है, जब यहॉं मुगल सम्राट औरंगजेब का शासनकाल था। तलवार के बल पर इस्लाम-धर्म को सारे भारत में फैलाने की उसकी दिली ख्वाहिश थी। यद्यपि ऐसा करने का पैगाम किसी भी धर्म में नहीं दिया गया है, फिर भी धर्मान्धता इन सब विषयों को सोचने भी नहीं देती। बादशाह ने इसका पहला प्रयोग कश्मीर पर किया। वहॉं के हिन्दू निवासियों के खेतों में खड़ा धान यह कह कर नष्ट किया जाने लगा कि मुसलमान बनो अन्यथा खेत को उजड़ता हुआ देखो। लहलहाते खेतों को यों नष्ट होते देख उनका व्यथित होना सहज था। पर जब रक्षक ही भक्षक बन जाता है, तब उपाय भी क्या?

सारे सिख मिलकर गुरुजी के पास आये और अपनी व्यथा कहने लगे। तेगबहादुर ने उन्हें धैर्य बंधाते हुए कहा, “”उन लोगों से कह दो कि यदि हमारे गुरु मुसलमान बन जायेंगे, तो हम भी मुसलमान बन जायेंगे। यह बात जब बादशाह ने सुनी, तो वह बहुत ही खुश हुआ। उसने इसे एक अच्छा रास्ता और लाभ का सौदा समझा। जब एक के मुसलमान बनने से अनेक व्यक्ति सहज ही मुसलमान बन जायेंगे, तो भला इससे अधिक और क्या चाहिए? इसी आशा से तेगबहादुर को बुलवा भेजा। गुरुजी को वहॉं जाने से उनके भक्तों ने बहुत रोका, पर उन्होंने सबको समझाते हुए कहा, “”यदि मेरे प्राण जाने से सिख कौम का भला होगा, तो उसमें घबराने की जरूरत नहीं है।

वे दिल्ली आये और बादशाह से मिले। बादशाह ने बहुत समझाया, कई तरह के प्रलोभन भी दिये, पर गुरुजी का उत्तर एक ही था, “”आपको अपना धर्म प्यारा है और मुझे अपना। मेरी तो आपको भी यही सलाह है कि धर्म-पालन में किसी पर दबाव नहीं होना चाहिए।” पर बादशाह इन चिकनी-चुपड़ी बातों में कब आने वाला था। तैश में आया और बोला, “”तुम्हारा धर्म झूठा है। अगर सच्चा हो, तो कुछ चमत्कार दिखाओ।”

“”चमत्कार दिखाना जादुगर का काम है, न कि एक सच्चे भक्त का।” गुरु के इस निर्भीक उत्तर पर बादशाह ने आव देखा न ताव, बस उन्हें मरवाने का आदेश दे दिया।

बाजार के बीचोंबीच लाकर सबके सामने इनका सिर काट दिया गया। इस घटना के पश्र्चात गुरु तेगबहादुर के पास एक चिट्ठी मिली, जिसमें लिखा था – सिर दिया पर शिखा नहीं दी। अर्थात् प्राणों का उत्सर्ग कर दिया, पर हिन्दू-धर्म का त्याग नहीं किया।

बादशाह के इस क्रूर व्यवहार से सिखों का खून खौल उठा। बादशाह ने सोचा था – तेगबहादुर को मरवा डालने से लोग जल्दी मुसलमान बन जाएँगे, पर इसका उल्टा हुआ। इस बलिदान से लोगों में धार्मिक वीरता की एक अनूठी लहर दौड़ पड़ी। “सतश्री अकाल’, “वाहे गुरु’ तथा “देख तेग फतह’ की आवाजें बुलंद करके सिख लोग मरने-मारने पर उतारू हो गये।

इस तरह मर-मिटने की दृढ़ता को देखकर बादशाह को उन्हें बलात् मुसलमान बनाने का विचार त्यागना पड़ा।

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