तू वहॉं मैं यहॉं

दो अभिन्न मित्र बरसों बाद मिले। एक विदेशी छात्रवृत्ति के सहारे विदेश चला गया था और वहीं का होकर रह गया था, जबकि दूसरा अपने देश की मिट्टी का मोह न छोड़ सका। उसने एक सरकारी संस्थान में टेक्नीकल इंस्ट्रक्टर की नौकरी कर ली। विदेशी मित्र अपने देसी मित्र के घर पहुंचा। चाय पीते हुए वह घर की दशा के बारे में सोच रहा था। चारों ओर की स्थिति उसके निम्न आर्थिक स्तर को बयां कर रही थी। मित्र ने उसे कुरेदा तो वह फट पड़ा, मेरे जूनियर कल के छोकरे, वक्त की चाल को समझते हुए कहॉं से कहॉं पहुँच गये। बड़ी-बड़ी तरक्की पा गये। घर-द्वार उन्नत हो गये। जबकि मेरी तरक्की के दूर-दूर तक आसार ही नहीं हैं। अधिकारी मुझे निकम्मा कहते हैं। प्रतिवर्ष मेरी गुणवत्ता रिपोर्ट खराब भेजी जाती है। अफसर को महीने में पचास हजार रुपये हर हाल में चाहिए। उन्हें भी ऊपर पहुँचाना पड़ता है। कहॉं से करूं इतना पैसा इकट्ठा? बचपन से जो स्वाभिमान का लहू रगों में दौड़ रहा है, उसे रिश्र्वत के गंदे नाले में कैसे बहा दूं? तेरी किस्मत अच्छी है, जो तू वहां है।

– रीता दिलीप

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