ये पति

एक सुन्दर, गोरी, कमसिन चंचल पत्नी ने अपने श्यामवर्णी पति से पूछा सुनोजी, जब मैं ना रहूँगी क्या आप पुनः ब्याह रचाओगे मेरी जगह किसी अन्य को इस घर की लक्ष्मी बनाओगे?   बात सुनकर पत्नी जी की पति जी ने विस्मय से उनको देखा देख पूरे होते अधूरे स्वप्न हृदय की उठती तरंगों को […]

वास्तविकता

हमारे बदन में तब सिहरन नहीं होती जब हम आपस में मिल बैठ कर अपने पुऱखों की जमीन बॉंटते हैं तब भी हमें सिहरन का आभास नहीं होता जब अपनी सुविधाओं के लिए हरे भरे जंगलों को निर्दयता से काटते हैं मगर जब हम इन बांटने और काटने के दूरगामी दुष्परिणामों पर एकांत में बैठकर […]

वापस – अरुण कमल

घूमते रहोगे भीड़ भरे बा़जार में एक गली से दूसरी गली एक घर से दूसरे घर बेव़क्त दरवा़जा खटखटाते कुछ देर रुक फिर बाहर भागते घूमते रहोगे बस यूं ही लगेगा भूल चुके हो लगेगा अंधेरे में सब दब चुका है पर अचानक करवट बदलते कुछ चुभेगा और फिर वो हवा कॉंख में दबाए तुम्हें […]

तुम बहुत कुछ हो

तुम कुछ नहीं हो मेरी, और बहुत कुछ हो, और सच क्या होगा? जब तुम ही एक सच हो खुशियों की कली हो या, रात चांदनी तुम हो, हार नहीं तुम गले पड़े जो, एक पुष्प गुच्छ तुम हो तुममें देखा मंदिर मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा भी संदेश तुम्हीं हो जीवन का, तुम हो मेरी जीवनधारा, […]

टिप्पणी – एफ. एम. सलीम

छंद और मात्रा की बंदिशों को तोड़ कर भावनाओं की अभिव्यक्ति करें अगर कोई यह कहे कि निडरता से किया है! तो हम कहेंगे, वह कविता है!   इसी कविता के समर्थक और प्रवर्तक तेलुगु के विख्यात क्रांतिकारी कवि श्री श्री की कुछ कविताएं पढ़ते हुए लगा कि वह कविता में ही नहीं बल्कि जीवन […]

शर्म कर

मानव अंग प्रत्यारोपण के व्यापार ने, डॉक्टर कुमार को बना दिया निशाचर दौलत की भूख की अग्नि भस्म कर गई मानवीय व्यवहार बना दिया गया एक निकृष्ट घृणास्पद व्यापार शर्मनाक घटना गैर कानूनी गैर इंसानियत तौर-तरीकों ने शर्मसार मां की ममता को धिक्कारते हुए नम कर दी होंगी आँखें शर्मिंदा मां चीत्कार कर कह उठी […]

संजय कुंदन की कविता

ऐसा क्या न कहें या ऐसा क्या न करें इस बात की पूरी गुंजाइश है कि कल रात सबने एक ही किताब पढ़ी हो सबने आईने के सामने एक ही काल्पनिक प्रश्र्न्न के एक ही उच्चार को दोहराया हो   संभव है सबने सुबह-सुबह एक ही मंदिर में एक ही देवता के सामने हाथ जोड़े […]

मुक्तक

बिन मां के बच्चों को बिगड़ते देख आँख नम हो गई थी गृहस्थी की गाड़ी खिंच नहीं रही थी हवा कम हो गई थी   – शरद जायसवाल कटनी, मध्यप्रदेश

मुक्तक – नरेन्द्र राय

अगर इन्सान है तो वो फ़सादी हो नहीं सकता, वो कत्लो खून का, दहशत का आदी हो नहीं सकता। अगर कुरआन का, इस्लाम का है मानने वाला, मुसलमॉं है अगर, आतंकवादी हो नहीं सकता ।। शहीदों का उड़ा रही है ये सरकार म़जाक, सुनकर समाचार कट गई है वीरों की नाक । बिन्द्रा ने निशाना […]

मैं चंदन हूँ

मैं चंदन हूँ मुझे घिसोगे तो महकूँगा घिसते ही रह गए अ़गर तो अंगारे बनकर दहकूँगा।   मैं विष को शीतल करता हूँ मलयानिल होकर बहता हूँ कविता के भीतर सुगंध हूँ आदिम शाश्र्वत नवल छंद हूँ   कोई बंद न मेरी सीमा – किसी मोड़ पर मैं न रुकूंगा। मैं चंदन हूँ।   बातों […]

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