लीक बनती कविताएँ

एन. गोपि तेलुगु के वरिष्ठ कवि हैं। प्रस्तुत पुस्तक में उनकी 50 कविताओं का अनुवाद हिन्दी के विज्ञ और वरिष्ठ अनुवादकों ने किया है। पुस्तक में संकलित कविताएँ बहुआयामी होने के बावजूद एक समन्वित, जिसे समग्र कहने में भी कोई हिचक नहीं हो सकती, दृष्टिकोण से बंधी हैं। यह दृष्टिकोण सकारात्मक है। यह स्वीकार किया […]

खेवनहार विभीषण

यह तय है कि विभीषणों के बिना राज नहीं किया जा सकता। कितने काम की ची़ज हैं विभीषण! इन लुढ़कन लोटों के बिना मुक्ति नहीं है। जियें तो जियें कैसे बिन आपके…। विभीषण हर युग में होते हैं। राज चाहे राम का हो या रावण का, विभीषण के बिना चल ही नहीं सकता। उनकी प्रशस्ति […]

धन कमाने में बिक गई नींद हमारी

बरसों पहले कृश्र्न्न चंदर का उपन्यास पढ़ा था “बम्बई रात की बांहों में’। तब उम्र छोटी थी, इसलिए उसके कथानक को समझ नहीं पाया। आज जब यह मायानगरी हमारे सामने मुम्बई बनकर आयी है, तब से यह सपनों का शहर बनकर रह गयी है। हर आदमी यहां एक सपना लेकर आता है। सपने का संबंध […]

खेले जइबै सावन में कजरिया

छप्पर की मुंडेर से गिरती पानी की टप-टप बूंदें, छत के पनालों से बहती पानी की मोटी धार, अपने सीने में घुटनों पानी समेट लहलहाते खेत, सौन्दर्य बिखेरती- इठलाती नदियॉं, ताल-तलैयों में अठखेलियॉं करते बच्चे और पानी में गोते लगाते मस्त मवेशी। सच में आ गया है सावन झूम के। ज्येष्ठ-आषाढ़ की तपती धरती पर […]

धूप में यारो कंकर पत्थर सोब चमकते रहते हैं

धूप में यारो कंकर पत्थर सोब चमकते रहते हैं अंधियारे में चमक दिखाने वाला असली हीरा है दूसरे के कांधे पो चढ़ को मईं कित्ता उछला तो क्या ऊंचा अदमी फ़र्श के ऊपर बैठा भी तो ऊँचा है सिराज शोलापुरी (सोलापुरी) की यह पंक्तियॉं पढ़ते हुए निश्र्चित ही हम यह सोचने पर मजबूर हो जाते […]

तू नहीं तो तेरा मजाक ही सही!

कवि सम्मेलन पूरे शबाब पर था। एक बुजुर्ग शायर पढ़ रहे थे – आग भी हैरान थी शायद ये मंजर देखकर, जब उसे तहजीब दां घर की दुल्हन तक ले गये। हम इधर उसके दुपट्टे को रफू करते रहे, वो उधर, शेरों को उसके तन-बदन तक ले गये। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच वे माइक […]

डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू. रिश्वत.कॉम

अभी भी बड़े-बड़े तीसमारखाओं को किसी दफ्तर में काम करवाने जाने का नाम सुनते ही दादी-नानी याद आ जाती है, क्योंकि “दफ्तर’ है ही ऐसा शब्द। यमराज के बाद किसी से जनता डरती है तो बस दफ्तर से। बेचारी जनता, निरीह जनता! इस लोक में भी डर, उस लोक में भी डर। दफ्तर की परिभाषा- […]

दे मत देना

आजकल गॉंवों में एक ही मुहावरा चल रहा है कि “दे मत देना’। जिन्होंने दिया वे पागल थे। जिन्होंने दिया वे लुट गये और जिन्होंने नहीं दिया वे बच गए। गॉंवों में आजकल एक नया नारा भी प्रचलन में है। लिये जाओ, लिये जाओ। बीज, ट्यूबवेल, औजार, खाद, स्ंिप्रंकलर आदि सब चीजों के लिये बैंकों […]

आज कविता की ज़रूरत किसको है

खाली व़क्त में फटी-पुरानी कविताओं की मरम्मत करते हुए कवि क्या सोचता है? यही कि आज कविता की ज़रूरत किसको है। वह कुछ देर अपने बच्चों के लिए पिता की भूमिका निभाते हुए सरल शब्दों की खोज करता है। वह कभी अपने पिता की ऩकल था तो कभी अपने पुरखों की परछाई और कभी अपनी […]

फिर उसने मुड़कर नहीं देखा

विकास की गति को कुछ शब्दों में बताने के लिए अकसर यह कहा जाता है कि …फिर उसने मुड़कर नहीं देखा, लेकिन कवि एक ऐसा जीव है, जिसका रचनात्मक संसार पीछे मुड़कर देखने से ही तामीर होता है। इसीलिए वह भूत को वर्तमान से जोड़ने का काम करता है। जब वह वर्तमान से भूत की […]

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